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________________ दारुण परितापना पाते हैं। क्योंकि, शिक्षक व्यर्थ तो अपने पुत्रोपम शिष्यों को पीटते ही नहीं है। जब शिष्य ही पढ़ाते पढ़ाते भी पाठ भूल जाता है, कला सीखने में उपेक्षा करता है, अपने उद्देश्य से स्खलित हो जाता है, तभी शिक्षक उसको (शिष्य को) भर्त्सनादि द्वारा मार्ग पर लाते हैं और कला-शिक्षण में दृढ़ करते हैं। सूत्रकार ने कला सीखने वाले छात्रों के लिए जो 'ललितेन्द्रियाः' शब्द का प्रयोग किया है, उसका यह भाव है कि, जब राजकुमार आदि प्रतिष्ठित वंशों के लड़कों की ही यह अवस्था होती है तो फिर अन्य साधारण श्रेणी के लड़के तो गुरु की मार से कैसे बच सकते हैं ? 'ललितेन्द्रिय' शब्द ध्वनित करता है कि शिक्षक, राजकुमार और दरिद्र-कुमार के बीच कोई अन्तर नहीं रखते। जो अच्छा पढ़ता है, वे उसी से प्रेम करते हैं और जो पढ़ने से जी चुराता है, उसी को ताड़ित करते हैं। उत्थानिका- अब सूत्रकार, ताड़न करने पर भी वे शिष्य गुरु की पूजा ही करते हैं, यह कथन करते हैं: तेऽवि तं गुरुं पूअंति, तस्स सिप्पस्स कारणा। सक्कारंति नमसंति, तुट्ठा निद्देसवत्तिणो॥१५॥ तेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति, तस्य शिल्पस्य कारणात्। सत्कारयन्ति नमस्यन्ति, तुष्टाः निर्देशवर्तिनः॥१५॥ ... पदार्थान्वयः-त वि-वे राजकुमार आदि छात्र निद्देसवत्तियो-गुरुश्री की आज्ञा में रहने वाले तुट्ठा-प्रसन्न होते हुए तस्स सिप्पस्स कारणं-उन शिल्प आदि कलाओं के निमित्त तंउस शिक्षक गुरूं-गुरु का पूअंति-पूजन करते हैं सक्कारंति-सत्कार करते हैं, तथैव उसको नमसंतिनमस्कार करते हैं। मूलार्थ- राजकुमार आदि सभी आज्ञावर्ती छात्र, ताड़न करने पर भी प्रसन्न होते हुए , शिल्प शिक्षा के कारण से शिल्पाचार्य को पूजते हैं, सम्मानित करते हैं एवं नमस्कार करते हैं। टीका- जब कलाचार्य पूर्वोक्त रीत्या राजकुमार आदि शिष्यों को ताड़ित करते हैं, तब जिनके हृदय में कला ग्रहण करने की सच्ची लगन लगी हुई है, वे गुरु पर किसी प्रकार का क्रोध नहीं करते हैं; प्रत्युत प्रसन्न भाव से गुरु की मधुर वचनों से स्तुति करते हुए पूजा करते हैं, वस्त्र, अलंकार आदि का उपहार देकर सत्कार करते हैं तथा हाथ जोड़ कर घुटने टेक कर उन्हें सप्रेम प्रणाम करते हैं और गुरु जो आज्ञा देते हैं तदनुसार आचरण करते हैं। यह सत्कार केवल विद्याध्ययन के समय ही नहीं करते, किन्तु विद्याध्ययन के पश्चात् भी ऐसा ही सत्कार करते हैं। क्योंकि, शिक्षक को सन्तुष्ट रखने से ही शिष्य शिल्प आदि कलाओं में जगन्मोहिनी चतुरता प्राप्त करता है, असन्तुष्ट रखने से नहीं। सूत्रकार का स्पष्ट भाव यह है कि, केवल एक इसी लोक में सुख पहुँचाने वाली कलाओं की शिक्षा के लिए 'राजकुमार' आदि कलाचार्य की भक्ति करते हैं / और कलाचार्य द्वारा की हुई मार-पीट (ताड़ना भर्त्सना) आदि को कदापि स्मृति पथ में नहीं नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [382
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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