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________________ आत्मार्थं वा परार्थं वा, शिल्पानि नैपुण्यानि च। गृहिण उपभोगार्थं, इह लोकस्य कारणात्॥१३॥ पदार्थान्वयः- गिहिणो-गृहस्थ लोग इहलोगस्स-इस लोक के कारणा-निमित्त उवभोगट्ठा-उपभोग के लिए अप्पणट्ठा-अपने लिए वा-अथवा परट्ठा-पर के लिए सिप्पाशिल्प कलाओं को अ-और नेउणिआणि-नैपुण्य कलाओं को सीखते हैं। मूलार्थ-गृहस्थ लोग लौकिक सुखोपभोगों के लिए, अपनी आजीविका के लिए तथा दूसरों के हित के लिए शिल्प कलाओं एवं नैपुण्य कलाओं को सीखते हैं। टीका-यह संसार सुख-दुःख-मिश्रित है, इसमें वे ही मनुष्य कुछ सुखी हो सकते हैं, जो कला-कुशल होते हैं। अतएव बहुत से अपने लिए तथा दूसरों के लिए तथा इससे मेरी आजीविका सुखपूर्वक चल सकेगी, इस विचार से अथवा इससे मेरे पुत्र-पौत्र आदि लाभ उठा कर सुख भोगेंगे, यह उद्देश्य रख कर अन्न-पानादि लौकिक सुखोपभोगार्थ शिल्प कलाएँ बड़े प्रयत्न से सीखा करते हैं। माँ-बाप अपने प्राण-प्यारे पुत्रों को कला-कुशल बनाने के लिए सुदूर विदेशों में भेजते हैं और पुत्र भी वहाँ अपने परिवार से अलग बिछुड़े हुए नाना प्रकार के भोजन, पान, परिधान, शयन आदि के एक से एक कठोर कष्ट उठाते हैं। इन कष्टों के साथ-साथ कलाचार्य की तरफ से जो तर्जनाएँ होती हैं, उनका दुःख अलग है। इसका वर्णन सूत्रकार स्वयं इसी अग्रिम, सूत्र में करेंगे। सूत्र में आए हुए 'शिल्प' और 'नैपुण्य' शब्द क्रमशः कुम्भकार, स्वर्णकार, लोहकार आदि की और चित्रकार, वादक, गायक आदि की कलाओं के वाचक हैं। उत्थानिका'-अब कला सीखते समय क्या-क्या कष्ट भोगे जाते हैं; यह कहते हैं:. जेण बंधं बहं घोरं, परिआवं च दारुणं। सिक्खमाणा निअच्छंति, जुत्ता तेललिइंदिआ॥१४॥ येन बन्धं वधं घोरं, परितापं च दारुणम्। शिक्षमाणा नियच्छन्ति,युक्तास्ते ललितेन्द्रियाः॥१४॥ पदार्थान्वयः- जेण-कलाओं के सीखने में जुत्ता-लगे हुए ललिइंदिआ-सुकोमल शरीर वाले ते-वे राजकुमार आदि सिक्खमाणा-कला सीखते हुए गुरु द्वारा बंधं-बन्धन को घोरंभयंकर बह-वध को च-तथा दारुणं-कठोर परिआवं-परितापना को नियच्छंति-प्राप्त करते हैं। मूलार्थ-पूर्वोक्त शिल्प आदि कलाओं को सीखते हुए राजकुमार आदि कोमल शरीर वाले छात्र भी बन्धन, ताड़न एवं परितापन के रौद्र तथा दारुण कष्ट शिक्षक गुरु से प्राप्त करते हैं। टीका- राजकुमार आदि बड़े-बड़े धन-बल शाली एवं कोमल शरीर वाले विद्यार्थी भी, जिस समय कलाचार्य के पास कलाओं की शिक्षा लेते हैं, तब वे कभी तो रस्सों से बाँधे जाते हैं, कभी चमड़ी उखाड़ देने वाली कोरड़ो की मार खाते हैं और कभी कर्कश वचनों से 381 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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