________________ मूलार्थ- तथैव भली भाँति विनयगुणोपपेत देव, यक्ष और गुह्यक जाति के देवता भी, सभी सुखों को भोगते हुए, उत्कृष्ट समृद्धि को प्राप्त हुए महायशस्वी देखे जाते हैं। टीका- इस गाथा में विनय के फल दिखाए गए हैं। यथा- विनयगुणी वैमानिक और ज्योतिष्क देव, यक्ष और गुह्यक देव नाना प्रकार के कायिक, वाचिक और मानसिक सुखों को भोगते हुए, नाना प्रकार के रूप परिवर्तन आदि ऋद्धि को प्राप्त कर महायशवन्त देखे जाते हैं। सूत्र में जो 'दीसंति' वर्तमान काल का क्रियापद दिया है, सो इससे यह भाव जानना चाहिए कि यह देवों का सुख केवल ज्ञानियों के ज्ञान में प्रत्यक्ष है और आजकल आगम ज्ञान में प्रत्यक्ष है तथा विनय का फल तीनों काल में एक ही रसमय होता है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, लोकोत्तर विनय का फल वर्णन करते हैं:जे आयरिअउवज्झायाणं, सुस्सूसावयणं करे। तेसिं सिक्खा पवटुंति, जलसित्ता इव पायवा॥१२॥ ये आचार्योपाध्यायानाम्, शुश्रूषावचनकराः / तेषां शिक्षाः प्रवर्द्धन्ते, जलसिक्ता इव पादपाः॥१२॥ पदार्थान्वयः-जे-जो शिष्य आयरिअउवज्झायाणं-आचार्यों और उपाध्यायों की सुस्सूसवयणं करे-सेवा-शुश्रूषा करते हैं और उनके वचनों को मानते हैं तेसिं-उनकी सिक्खाशिक्षाएँ जलसित्ता इव पायवा-जल से सींचे हुए वृक्षों के समान पवईति-वृद्धि को प्राप्त होती है। ___ मूलार्थ-जो भव्य आचार्यों एवं उपाध्यायों के प्रिय सेवक और आज्ञा-पालक होते हैं। उनका शिक्षाज्ञान खूब अच्छी तरह जल से सींचे हुए वृक्षों की तरह क्रमशः बढ़ता ही जाता है। टीका-नारकीय जीवों को छोड़ कर शेष जीवों के विनय और अविनय का फल दिखाए जाने पर अब सूत्रकार, इस विशेष सूत्र से लोकोत्तर विनय का फल वर्णन करते हुए कहते हैं कि, जो शिष्य आचार्यों और उपाध्यायों की विशुद्ध रूप से सेवा-शुश्रूषा करने वाले हैं और उनकी प्राण-पण से आज्ञा मानने वाले हैं; उन पुण्य भागी शिष्यों की ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होती है, जिस प्रकार जल से यथा समय सिंचन किए हुए.वृक्ष यथा शक्ति बढ़ते हैं। क्योंकि आज्ञा के मानने से आचार्य आदि पूज्य पुरुषों की आत्मा प्रसन्न होती है, जिससे वे विशेषतया श्रुतज्ञान द्वारा शिष्य को शिक्षित करते हैं। फिर उस शिक्षा के फलस्वरूप शिष्य की आत्मा को अनन्त कल्याण रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार 'किस भाव को रखकर विनय करनी चाहिए' यह कथन करते हैं: अप्पणट्ठा परट्ठा वा, सिप्पा णेउणिआणि अ। गिहिणो उवभोगट्ठा, इह लोगस्स कारणा॥१३॥ नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [380