________________ मूलार्थ- जिस प्रकार अविनयी मनुष्य दुःख भोगते हैं, ठीक उसी प्रकार अविनीत देवे', यक्ष और गुह्यक भी निरन्तर दुःख भोगते हुए तथा पराधीन सेवा वृत्ति में .लगे हुए, देखे जाते हैं। टीका- जिस प्रकार पूर्वसूत्रों में तिर्यंच और मनुष्यों को लेकर अविनय के कुफल का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार सूत्रकार ने इस सूत्र में देवों को लेकर अविनय के कफल का वर्णन किया है। तथाहि- जो किसी प्रकार का विनय नहीं करने वाले वैमानिक या ज्योतिष्क देव हैं तथा यक्षादि व्यन्तर देव हैं तथा भवनपति आदि गुह्यक देव हैं, वे सब पराधीनता के कारण से तथा पर की समृद्धि देखने से नाना भाँति के असह्य दुःख भोगते हुए तथा दूसर देवों की सेवा में कुत्ते के सदृश कुत्सित जीवन बिताते हुए देखे जाते हैं। यहाँ 'दीसंति' क्रियापद पर प्रश्न होता है कि, देवलोक के देवताओं के कष्टों का देखना किस प्रकार बन सकता है? उत्तर में कहना है कि, सूत्र में जो 'दीसंति' क्रिया दी है, वह सापेक्ष है अतः अपेक्षा की पूर्ति केलिए यहाँ अनुक्त अवधिज्ञान एवं श्रुत-ज्ञान आदि अभ्यन्तर ज्ञान चक्षुओं का अध्याहार किया जाता है। जिस कारण ज्ञानी पुरुष अवधिज्ञान एवं श्रुतज्ञान आदि से देवलोकस्थ अविनीत देवों के कष्टों को देखते हैं। सूत्रगत 'आभियोग्य' शब्द जैन परिभाषा का है और पारिभाषिक शब्दों का अर्थ सहसा हर कोई नहीं समझ सकता। अस्तु यहाँ आभियोग्य शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध स्पष्ट अर्थ सहसा हर कोई नहीं समझ सकता। अस्तु यहाँ आभियोग्य शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध स्पष्ट अर्थ यह किया जाता है- अभियोगः- आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीति अभियोगी, तद्भाव आभियोग्यं कर्मकर-भावमित्यर्थः। अर्थात्- 'अभियोगी' दास को कहते हैं और अभियोगी का भाव आभियोग्य' दासता कहलाता है। भाव यह है कि, अविनीत देव होकर भी कुछ सुख नहीं पाता। वहाँ पर भी वह दासता में लगा हुआ संख्यात असंख्यात काल पर्यन्त घोर दुःख भोगता है तथा सेवा में यत्किंचित् असावधानी हो जाने से स्वामी या देवों के वज्र आदि प्रहार से पीड़ित होता है। उत्थानिका- अब विनीत देवों के विषय में कहते हैंतहेव सुविणीअप्पा, देवा जक्खा अगुज्झगा। दीसंति सुहमेहंता, इड्डिंपत्ता महायसा // 11 // तथैव सुविनीतात्मानः, देवा यक्षाश्च गुह्यकाः। दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धिं प्राप्ता महायशसः // 11 // पदार्थान्वयः- तहेव-उसी प्रकार सुविणीअप्पा-आज्ञा पालन करने वाले देवा-देव जक्खा -यक्ष अ-और गुज्झगा-गुह्यक सुहमेहंता-सुख को भोगते हुए इड्डिंपत्ता-ऋद्धि को प्राप्त हुए तथा महायसा-महयश से युक्त दीसंति-देखे जाते हैं। 1. यहाँ पर 'देव'शब्द समुच्चय देवजाति का वाचक न होकर, केवल ज्योतिष एवं वैमानिक देवों काही वाचक है। क्योंकि सूत्रकार ने आगे ही यक्ष और गुह्यक जाति के देवों का नाम निर्देश किया है। 379 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्