________________ अविनय सर्वांश से ही त्याज्य है। ___उत्थानिका- अब सूत्रकार, विनीत मनुष्यों की सुखमयी अवस्था का वर्णन करते हैं: तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नरनारिओ। ... दीसंति सुहमेहंता, इड्ढिपत्ता महायसा॥९॥ तथैव सुविनीतात्मानः, लोके नरनार्यः। दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धिं प्राप्ताः महायशसः॥९॥ पदार्थान्वयः- तहेव-उसी प्रकार लोगंसि-लोक में सुविणीअप्पा-आज्ञा मानने वाले सुविनीत नरनारिओ-नर और नारियाँ सुहमेहंता-सुख भोगते हुए इडिंपत्ता-ऋद्धि को प्राप्त हुए तथा महायसा-महायशवंत दीसंति-देखे जाते हैं। मूलार्थ-संसार में विनीत पुरुष और स्त्रियाँ सुख भोगते हुए, समृद्धि को प्राप्त हुए तथा महान् यश कीर्ति से युक्त देखे जाते हैं। ___टीका-जिस प्रकार विनीत पशु नाना प्रकार के एक से एक मनोहर सुख भोगते हैं, ठीक इसी प्रकार इस मनुष्य लोक में बहुत से स्त्री और पुरुष नानाविध सुखों का अनुभव करते हुए तथा नाना प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि को प्राप्त कर अपने जगद्व्यापी शशधर रूपी धवल महान् विमल यश से चारों दिशाओं को विशुभ्र करते हुए देखे जाते हैं। कारण यह है कि राजा आदि की अथवा गुरुजनों की विनय पूर्वक शुद्ध चित्त से की हुई सेवा कभी निष्फल नहीं जाती है। इन की सेवा सदा सुख ही देने वाली होती है। परन्तु राजा आदि लोगों की तथा गुरुजनों की सेवा में महान् अन्तर है। वह अन्तर यह है कि राजा आदि की सेवा इसी लोक में कुछ काल के लिए ही सुखदायक होती है और गुरुजनों की सेवा लोक परलोक दोनों ही में सुख कारिका होती है। जिस प्रकार प्रत्येक धान्य वा वृक्षों की वृद्धि का कारण केवल एक जल ही है, तद्वत् प्रत्येक सुख का कारण एक विनय ही है। इसी वास्ते सूत्रकार ने विनयी के लिए महायशसः' का विशेषण दिया है। वस्तुतः विनयी का ही विश्वव्यापी महायश हो सकता है। ___उत्थानिका- अब अविनीत देवताओं के विषय में कहते हैं:तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा अगुज्झगा। .. दीसंति दुहमेहंता, आभिओगमुवट्ठिआ // 10 // तथैव अविनीतात्मानः, देवाः यक्षाश्च गुह्यकाः। दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, आभियोग्यमुपस्थिताः // 10 // पदार्थान्वयः-तहेव-उसी प्रकार अविणीअप्पा-अविनीतात्मा देवा-देव जक्खा- . यक्ष अ-और गुज्झगा-गुह्यक (भवनपति देव) दुहमेहंता-दुःख भोगते हुए तथा आभिओगमुवट्ठिआ-सेवकभाव को प्राप्त हुए दीसंति-देखे जाते हैं। नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [378