________________ से घोर दुःखों का अनुभव करते हुए प्रत्यक्ष में देखे जाते हैं तथा सेवक भाव में सदैव काल तत्पर रहते हैं। जैसे- अत्यंत भार का उठाना, यथा समय पर भोजन का न मिलना, कोरड़ों (चाबुक) की मार खाना आदि तथा सूत्र में जो 'उववज्झा'-'औपवाह्याः' पद दिया है, उसका स्पष्ट अर्थ यह है कि - "राजादि वल्लभानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्याः" राजा आदि महापुरुषों की सेवा के काम में आने वाले अश्व, गजादि पशु। उत्थानिका- अब सूत्रकार, अपने स्वामी की आज्ञानुसार चलने वाले विनयी पशु सुख पाते हैं; यह कहते हैंतहेव सुविणीअप्पा, उववज्झा हया गया। दीसंति सुहमेहंता, इड्ढि पत्ता महायसा॥६॥ तथैव सुविनीतात्मानः औपवाह्या हया गजाः। दृश्यंते सुखमेधमानाः, ऋद्धिं प्राप्ताः महायशसः॥६॥ पदार्थान्वयः-तहेव-इसी प्रकार उववज्झा-सेनापति आदि लोगों के सुविणीअप्पासुविनीतात्मा हया-घोड़े तथा गया-हाथी सुहमेहंता-सुख भोगते हुए इड्डिंपत्ता-ऋद्धि को प्राप्त हुए महायसा-महायशवंत दीसंति-देखे जाते हैं। मूलार्थ-राजा आदि प्रधान पुरुषों के हाथी और घोड़े आदि श्रेष्ठ पशु सुविनीतता के कारण परम सुख भोगते हुए, ऋद्धि को प्राप्त कर और महान् यश वाले देखे जाते हैं। टीका- इस गाथा में कहा गया है कि, जो अपने स्वामी की सर्वथा आज्ञा-पालन करने वाले राजा, राजमंत्री आदि लोगों के घोड़े वा हाथी हैं, वे महान् सुख भोगते हुए, साथ ही सुन्दर आभूषण व सुन्दर सरस भोजन को प्राप्त करते हैं, इतना ही नहीं, किन्तु अपने सद्गुणों के कारण से महान् यश, कीर्ति वाले प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। तात्पर्य यह है कि, चाहे कोई मनुष्य हो, चाहे कोई पश हो. स्वामी की आज्ञा पालन करने से ही सख की प्राप्ति होती है.स्वामी की आज्ञा की विराधना से नहीं। आज्ञा-विराधक तो केवल दुःख के ही भागी होते हैं। किसी प्रति में 'इडिंढ पत्ता' से स्थान पर 'सुद्धिं पत्ता' ऐसा पाठ भी है। उसका यह भाव है कि, विनय गुण के कारण से ही प्रधान सेनापति आदि पुरुषों के हाथी और घोड़े आदि पशुओं के पास उनकी सेवा के लिए सदैव दास रहते हैं; जो नित्य प्रति उनके रहने के स्थान को एवं उनके शरीर को साफ सुथरा रखते हैं और मलादि को दूर करते रहते हैं। __उत्थानिका- अब अविनयी मनुष्य का अधिकार करते हैं:तहेव अविणीअप्पा, लोगंसि नरनारिओ। दीसंति दुहमेहंता, छाया ते विगलिंदिआ॥७॥ तथैव अविनीतात्मानः, लोके नरनार्यः। दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, छाताः ते विकलेन्द्रियाः॥७॥ ... हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [376 नवमाध्ययनम् ]