________________ पदार्थान्वयः-जो-जो नरो-मनुष्य उवाएण-किसी उपाय से विणयंपि-विनय धर्म के प्रति चोइओ-प्रेरित किया हुआ कुप्पई-क्रुद्ध होता है सो-वह इजंति-आती हुई दिव्वं-प्रधान सिरी-लक्ष्मी को दंडेण-दण्ड से पडिसेहए-प्रतिषेधित करता है। - मूलार्थ-जो पुरुष किसी उपाय से विनय धर्म में प्रेरित करने पर क्रोध करता है, मूर्ख सम्मुख आती हुई दिव्य लक्ष्मी को डंडे से उल्टा हटाता है। टीका-इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, वस्तुतः विनय ही लक्ष्मी है। जैसे कि कोई पुरुष विनय धर्म से स्खलित हो जाता है, तब कोई पुरुष उसे एकान्त स्थान में मधुर एवं कोमल वाक्यों से शिक्षित करता है कि, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। तुम मनुष्य हो, तुम्हें नम्न होना चाहिए। तब यह अविनीत पुरुष शिक्षा सुनते ही क्रोध के आवेश में आ जाता है, तो वह वास्तव में अपने घर में आती हुई अलौकिक-प्रभा-वाली लक्ष्मी को डंडों की मार देकर, घर से बाहर कर देता है अर्थात् लक्ष्मी को डंडा मार कर वापस ही लौटाता है। यहाँ सूत्र में जो लक्ष्मी शब्द का प्रयोग किया है, वह विनय के लिए किया है। सूत्रकार का इससे यह भाव है कि जो अविनीत पुरुष, शिक्षक गुरु की शिक्षा पर ध्यान नहीं देता और उलटा अपमान के झूठे विचार से क्रुद्ध होता है; वह अपने हृदय भवन में आती हुई सकल-सुख-साधिका विनय लक्ष्मी को क्रोध रूपी कठोरतर डण्डे से तिरस्कृत कर बाहर निकालता है। अतः यदि संसार में यश कीर्ति फैला कर अपना नाम अमर करना है, तो विनय लक्ष्मी की आदर पूर्वक उपासना करनी चाहिए। क्योंकि इस विनयरूप भाव-लक्ष्मी के समक्ष द्रव्य लक्ष्मी कोई अस्तित्व नहीं रखती / ___ उत्थानिका- अब सूत्रकार, अविनीत अश्व गजादि की उपमा देकर अविनय का दुःख बतलाते हैं:- . तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया। दीसंति दुहमेहंता, आभिओगमुवट्ठिआ // 5 // तथैव अविनीतात्मानः, औपवाह्या हया गजाः। दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, आभियोग्यमुपस्थिताः // 5 // पदार्थान्वयः-तहेव-तथैव उववज्झा-प्रधान सेनापति आदि लोगों के अविणीअप्पाअविनीतात्मा हया-घोड़े गया-हाथी दुहमेहंता-दुःख भोगते हुए तथा आभिओगमुवट्ठिआआभियोग्यभाव में (सेवक भाव में) लगे हुए दीसंति-देखे जाते हैं। मूलार्थ-राजा आदि प्रधान पुरुषों के हाथी और घोड़े आदि पशु भी, अविनीतता के कारण, प्रत्यक्ष में महा दुःख भोगते हुए एवं आभियोग्य भाव को प्राप्त हुए, देखे जाते टीका- इस गाथा में अविनय के दोष दिखलाए गए हैं। यथा- जो विनयगुण रहित आत्माएँ हैं, वे सदैव दुःख ही पाती हैं। उन्हें कभी सुख नहीं मिलता। जिस प्रकार राजा आदि महापुरुषों के हाथी और घोड़े आदि पशु, जो अपने स्वामी की आज्ञा-पालन नहीं करते हैं; वे घोर 375 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्