________________ जे अ चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे। वुज्झइ से अविणीअप्पा, कटुं सोअगयं जहा॥३॥ यश्च चण्डः मृगः स्तब्धः, ___ दुर्वादी निकृति (निकृतिमान् ) शठः। उह्यतेऽसौ अविनीतात्मा, काष्ठं स्रोतोगतं यथा॥३॥ पदार्थान्वयः-जे-जो चंडे-क्रोधी है मिए-मूर्ख है थद्धे-अहंकारी है दुव्वाई-दुर्वादी है, कठोर भाषी है नियडी-कपटी है अ-तथा सढे-संयम योग में आदर हीन है से-वह अविणीअप्पाअविनीतात्मा सोअगयं-जल-प्रवाह-पतित कटुं-काष्ठ जहा-जैसे बह जाते हैं, तद्वत् बुज्झइसंसार-सागर में बह जाते हैं। मूलार्थ-जो क्रोधी, अज्ञानी, अहंकारी, कटुवादी, कपटी और संयम अविनीत पुरुष होते हैं; वे जिस प्रकार जल प्रवाह में पड़ा हुआ काष्ठ बह जाता है; तद्वत् संसार समुद्र में बह जाते हैं। टीका- इस गाथा में अविनय का फल दिखलाया गया है। यथा- जो पुरुष क्रोध करने वाला है, हितकारी बात को नहीं मानने वाला है, जात्यादि के मद से उन्मत्त रहता है, कठोर भाषा बोलता है, छल कपट में फँसा रहता है और संयम के शुभ योगों का अनादर करने वाला है; वह अविनीत है। वह किसी पूज्य पुरुष की विनय नहीं कर सकता। वह अविनीतात्मा, "सकलकल्याणैकनिबन्धन" विनय-गुण से रहित हुआ और "सकलदुःखैकनिबन्धन"अविनयदोष से युक्त है और इस प्रकार संसार-सागर में बह जाता है, जिस प्रकार स्रोतोगत काष्ठ अर्थात् नदी जल के प्रवाह में पड़ा हुआ काण्ठ बह जाता है। अतएव कल्याणाभिलाषी सज्जनों को योग्य है कि, वे कटु-फल-प्रदाता अविनय को छोड़ कर मधुर फल-प्रदाता विनय की शरण लें। बिना विनय की शरण लिए सुख शान्ति की सुधाधारा का आस्वादन नहीं किया जा सकता। उत्थानिका- अब पुनः इसी विषय में कहते हैं:विणयंपि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो। दिव्वं सो सिरिमिजंतिं, दंडेण पडिसेहए॥४॥ विनये य उपायेन, चोदितः कुप्यति नरः। दिव्यां सः श्रियम् आयन्ती, दण्डेन प्रतिषेधयति॥४॥ नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [374