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________________ वाचक-वर्ग वा श्रोता-गण को वनस्पति की उत्पति का भी भली-भाँति ज्ञान हो जाए। कारण यह है कि, प्रत्येक पदार्थ अपनी शैली के अनुसार अर्थात् अपनी अनुक्रमतापूर्वक उत्पादधर्म वा व्ययधर्म को प्राप्त होता रहता है। किन्तु प्रत्येक पदार्थ का मूल धर्म 'ध्रौव्य' ही रहता है। वह कभी विनष्ट नहीं होता। उत्थानिका- अब दृष्टान्त के कथन के बाद दार्टान्तिक की योजना की जाती है:एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो असे मुक्खो। जेण कित्तिं सुअंसिग्धं, नीसेसं चाभिगच्छइ॥२॥ एवं धर्मस्य विनयो मूलं, परमस्तस्य मोक्षः। येन कीर्तिं श्रुतं श्लाघ्यं, निःशेषं चाधिगच्छति // 2 // पदार्थान्वयः-एवं-इसी प्रकार धम्मस्स-धर्मरूप वृक्ष का मूलं-मूल विणओ-विनय है च-और से-उस धर्मरूप वृक्ष का परमो-उत्कृष्ट-रस-युक्त फल मुक्खो -मोक्ष है। विनय वह है जेण-जिससे विनयी शिष्य कित्तिं-कीर्ति सुअं-श्रुत च-और नीसेसं-सम्पूर्ण सिग्धं-श्लाघा को अभिगच्छइ-प्राप्त करता है। - मूलार्थ-धर्मरुप कल्प वृक्ष का विनय तो मूल है और मोक्ष उत्कृष्ट फल का रस है। क्योंकि विनय से ही यश कीर्ति, श्रुत एवं श्लाघा आदि पूर्ण रुप से प्राप्त किए जाते हैं। टीका-इस गाथा में दान्तिक का भाव दिखलाया गया है। यथा-धर्म-रूप कल्प वृक्ष का आदि प्रबन्ध रूप मूल तो विनय है और अन्तिम फल का मधुर रस रूप मोक्ष है तथा जिस प्रकार वृक्ष की शाखाएँ और प्रशाखाएँ प्रतिपादन की गई हैं, इसी प्रकार धर्म-रुप कल्पवृक्ष के भी देवलोक-गमन, श्रेष्ठकुल गमन आदि जानने चाहिए। क्योंकि संसार में यावन्मात्र जो शब्दादि विषयों के सुख हैं, वे सभी धर्म रुप वृक्ष के ही फल हैं। धर्म के बिना सांसारिक सुख भी प्रास नहीं हो सकते। विनय-विनीत मनुष्य को पारलौकिक मोक्ष आदि फल तो मिलते ही हैं, परन्तु विनयी इस लोक में भी कोई साधारण निम्न श्रेणी का मनुष्य नहीं होता; प्रत्युत उस अतीव उच्च श्रेणी का होता है, जो सुखाभिलाषी मनुष्य संसार के सामने एक आदर्श रुप होता है। यही कारण है कि जो विनयी पुरुष होता है, उसकी सर्वत्र यश कीर्ति होती है। वह श्रुतविद्या में पारंगत होता है। उसकी श्लाघा वे भी करेंगे जो कभी किसी की श्लाघा करनी नहीं जानते। ये सब बातें विनयी की कुछ अधूरी नहीं होती, प्रत्युत सम्पूर्ण रुप से होती हैं। इसीलिए सूत्रकार ने 'नीसेसं' पद का प्रयोग किया है। सूत्रकार ने जो यह वृक्ष का दृष्टान्त दिया है, इसका यह तात्पर्य है कि, जो मुमुक्षु मोक्ष सुख की इच्छा करता है और तदर्थ कठिन से कठिन धर्म क्रियाएँ करता है, उसे उचित है कि यह प्रथम विनय को स्वीकार करे। क्योंकि यही धर्म रुप वृक्ष का मूल है। बिना मूल का वृक्ष कैसा ? यह आबाल वृद्ध प्रसिद्ध है। 'छिन्ने मूले कुतः शाखा'। उत्थानिका- अब सूत्रकार, अविनय के दोष दिखलाते हैं:३७३ ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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