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________________ सुच्चाण मेहावी सुभासिआइं, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो। आराहइत्ता ण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमणुत्तरं॥१७॥ त्ति बेमि। इति वियणसमाहिज्झयणे पढमो उद्देसो समत्तो॥ श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि, . शुश्रूषयेत् आचार्यान् अप्रमत्तः। आराध्यणं गुणान् अनेकान् सः, प्राप्नोति सिद्धिमनुत्तराम्॥१७॥ इति विनयसमाध्यध्ययनेप्रथमउद्देशः समाप्तः॥ पदार्थान्वयः-मेहावी-बुद्धिमान् साधु सुभासिआई-सुभाषित वचनों को सुच्चा-सुन कर अप्पमत्तो-प्रमाद को छोड़ता हुआ आयरिअ-आचार्यों की सुस्सूसए-सेवा शुश्रूषा करे और फिर से-वह साधु अणेगे-अनेक गुणे-गुणों की आराहएत्ता-आराधना करके अणुत्तरं-सर्वोत्कृष्ट सिद्धि को (मोक्ष को) पावई-प्राप्त करता है त्ति बेमि-इस प्रकार मैं कहता हूँ। . मूलार्थ-बुद्धिमान् साधु को योग्य है कि , वह सुभाषित प्रवचनों को सुनकर अप्रमत्त भाव से आचार्य जी की सेवा करे; क्योंकि, इससे साधु, अनेक सद्गुणों की आराधना कर लेता है और आराधना करके अनुत्तर (सर्व श्रेष्ठ) सिद्धिस्थान को पा लेता है। . टीका-इस काव्य में सेवा का अन्तिम परिणाम वा गुणों की आराधना का फल दिखलाया गया है। यथा-जो बुद्धिमान् साधु है, वह आचार्यों के सुभाषित वाक्यों को श्रवण कर अर्थात् गुरु की आराधना का फल सुनकर निद्रादि प्रमादों को छोड़ता हुआ आचार्य श्री की आज्ञा का पालन करे। क्योंकि इस सेवा से अनेक ज्ञान आदि समीचीन गुणों की आराधना करके साधु, सब से प्रधान जो मुक्ति रूप सिद्धि है, उसको प्राप्त कर लेता है और अजर अमर हो जाता है। सूत्रकार के कथन का स्पष्ट भाव यह है-गुरू सेवा का फल स्वल्प नहीं है। गुरु सेवा से ही सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की आराधना होती है और फिर उसी भव या सुकुलादि में जन्म लेते हुए सुखपूर्वक अनुक्रम से अक्षय मोक्ष धाम की प्राप्ति होती है। "श्रीसुधर्मा जी जम्बू स्वामी जी से कहते हैं कि हे वत्स ! जैसा मैंने वीर प्रभु से इस नवम अध्ययन के प्रथम उद्देश का वर्णन सुना था, वैसा ही मैंने तेरे प्रति कहा है।" नवमाध्ययन प्रथमोद्देश समाप्त। 371 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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