________________ ___ उत्थानिका-अब सूत्रकार आचार्य को आकर (खान) की उपमा से वर्णन करते हैं:महागरा आयरिआ महेसी, समाहिजोगेसुअसीलबुद्धिए। संपाविउ कामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्मकामी॥१६॥ महाकराः आचार्या:महैषिणः, _समाधियोगेनश्रुतशीलबुद्ध्या / सम्प्राप्तुकामः अनुत्तराणि, ___आराधयेत् तोषयेत् धर्मकामी॥१६॥ पदार्थान्वयः-अणुत्तराई-सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि रत्नों को संपाविउकामे-प्राप्त करने का इच्छुक धम्मकामी-धर्म की कामना करने वाला साधु महागरा-ज्ञान आदि रत्नों के आकर तथा समाहि जोगे सुअसील बुद्धिए-समाधियोग श्रुत, शील और बुद्धि से युक्त महेसी-महर्षि आयरिआ-आचार्यों की आराहए-आराधना करे तथा तोसइ-उनको विनयादि से प्रसन्न करे। __ मूलार्थ-सम्यग्ज्ञान आदि सर्वप्रधान भावरत्नों के पाने की इच्छा करने वाले एवं धर्म की कामना करने वाले साधुओं को योग्य है कि वे समाधियोग, श्रुत, शील और बुद्धि से युक्त, महाकररूपमोक्षाभिलाषी आचार्य की आराधना करें और निरन्तर सेवा से उन्हें सदा प्रसन्न रक्खें। टीका-इस काव्य में आचार्य की स्तुति का और उनको प्रसन्न करने का वर्णन किया गया है। यथा-जो आचार्य ज्ञान आदि भावरत्नों की अपेक्षा से महाकर के समान हैं तथा समाधियोग-ध्यान से, श्रुत-द्वादशाङ्ग के अभ्यास से, शील-परद्रोहविरति रूप से और बुद्धि-सद् विचार रूप से संयुक्त हैं; उन महान् आचार्यों की ज्ञानादि प्रधान भावरत्नों की प्राप्ति के लिए विनय द्वारा आराधना करनी चाहिए। यह आराधना कुछ एक बार ही नहीं करनी, किन्तु धर्म की कामना (निर्जरा की कामना) करने वाला साधु, सदा ही विनयादि के करने से उन्हें अतीव प्रसन्न करे। क्योंकि वे आचार्य मोक्षगमन की अनुप्रेक्षा करने वाले हैं, अतः उनकी सदैव विनय भक्ति करनी उचित है। सूत्र में जो 'महागरा' और 'आयरिआ' पद दिए हैं, वे प्रायः प्रथमान्त माने जाते हैं; परन्तु किसी किसी अर्थकार आचार्य के मत में 'महाकरान्' -'आचार्यान्' इस प्रकार द्वितीयान्त भी कथित किए हैं। सूत्रोक्त 'महेसी' शब्द का संस्कृत रूप 'महर्षि' और 'महैषी' दोनों ही होते हैं। महर्षि का अर्थ सर्वोत्कृष्ट ऋषि और 'महैषी' का अर्थ महान् मोक्ष की इच्छा करने वाला होता है। उत्थानिका-अब सूत्रकार प्रस्तुत उद्देश का उपसंहार करते हुए आचार्य सेवा से मोक्ष फल की प्राप्ति होती है' यह कहते हैं:नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [370