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________________ उत्थानिका-अब सूत्रकार, आचार्य को सूर्य और इन्द्र की उपमा देते हैं:जहा निसंते तवणच्चिमाली, पभासइ केवल भारहंतु। ... एवायरिओ सुअसीलबुद्धिए, विरायई सुरमझेव इंदो॥१४॥ यथा निशान्ते तपन् अर्चिर्माली, प्रभासयति केवल भारतं तु। एवमाचार्यः श्रुत-शील-बुद्ध्या, विराजते सुरमध्य इव इन्द्रः॥१४॥ पदार्थान्वयः-जहा-जिस प्रकार निसंते-रात्रि के अन्त में तवणच्चिमाली-प्रकाश करता हुआ सूर्य, अपनी किरणों से तु-निश्चय ही केवल भारहं-सम्पूर्ण भारतवर्ष को पभासईप्रकाशित करता है एव-उसी प्रकार आयरिओ-आचार्य सुअसील बुद्धिए-श्रुत, शील और बुद्धि से जीवादि पदार्थों का प्रकाश करता है। तथा व-जिस प्रकार सुरमझे-देवों के मध्य में इंदो-इन्द्र शोभित होता है, उसी प्रकार आचार्य भी साधुओं के मध्य में विरायई-शौभित होता है। मूलार्थ-जिस प्रकार प्रातःकाल रात्रि के अन्त में देदीप्यमान सूर्य समस्त भरत खण्ड को अपने किरण समूह से प्रकाशित करता है, ठीक इसी प्रकार आचार्य भी श्रुत, शील और बुद्धि से युक्त हुए उपदेश द्वारा जीवादि पदार्थों के स्वरूप को यथावत् प्रकाशित करता है तथा जिस प्रकार स्वर्ग में देव सभा के मध्य इन्द्र शोभा देता है, उसी प्रकार साधुसभा के मध्य आचार्य शोभा देता है। टीका-इस काव्य में 'आचार्य अतीव पूजनीय हैं' यह बात दो उपमाओं द्वारा बतलाई गई है। जब रात्रि का अन्त होता है और प्रभात का समय आता है, तब भास्वर सूर्य उदयाचल पर उदय होकर सम्पूर्ण भारतवर्ष को प्रकाशित कर देता है, सोते हुए लोगों को जगा कर अपने अपने कामों में दृढ़ता के साथ लगा देता है। इसी प्रकार आचार्य भी श्रुत-आगम से, शील-परद्रोहविरतीरूप संयम से तथा तर्कणा रूप बुद्धि से युक्त होता हुआ स्पष्ट उपदेश द्वारा समस्त जड़ और चैतन्य पदार्थों के भावों को प्रकाशित करता है और शिष्यों को प्रबोधित कर आत्मसिद्धि के कार्य में पूर्ण उत्साह के साथ संलग्न कर देता है। यह सूर्य की उपमा कही गई। अब दूसरी उपमा इन्द्र की दी जाती है। स्वर्ग लोक में छोटे बड़े देवों के बीच जिस प्रकार रत्नासनासीन (रत्नों के सिंहासन पर विराजमान) इन्द्र महाराज सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार यहाँ मनुष्य लोक में छोटे बड़े सभी साधुओं के बीच 'पट्टधर' आचार्य महाराज सुशोभित होते हैं। यह उपमा, आचार्य जी की संघ पर होने वाली अखण्ड शासकता को धोतित करती है। इस सूत्र से यह भली-भाँति सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक पदार्थ का निर्णय करने के लिए श्रुत, शील और नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [368
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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