________________ चाहिए। यदि ऐसा न हो तो कुशलानुबंध का व्यवच्छेद उपस्थित होता है। ‘उत्थानिका-अब, गुरूभक्ति करते हुए मन में कैसे भाव रखने चाहिए वह कथन करते हैं:लज्जा दया संजम बंभचेरं, कलाणभागिस्स विसोहिठाणं। जे मे गुरु सययमणुसासयंति, तेहिं गुरु सययं पूअयामि // 13 // लज्जा दया संयम ब्रह्मचर्य, कल्याणभाजः विशोधिस्थानम्। ये मां मुरवः सततमनुशासयन्ति, तान् अहं गुरुन् सततं पूजयामि // 13 // पदार्थान्वयः-कल्लाणभागिस्स-कल्याणभागी साधु के लजा-लज्जा दया-दया संजम-संयम तथा बंभचेरं-ब्रह्मचर्य, ये सब विसोहिठाणं-कर्म मल दूर करने के स्थान हैं और शिष्य जे-जो गुरु-गुरु मे-मुझे सययं-निरन्तर अणुसासयंति-हित शिक्षा देते हैं तेहिं गुरु-उन गुरुओं की मैं सययं-निरन्तर पूअयामि-पूजा करता हूँ, यह भाव रक्खे। मूलार्थ-लजा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य कल्याणभागी साधु की आत्मा को विशुद्ध करने वाले हैं। एतदर्थ शिष्य को सदैव यही भावना रखनी चाहिए कि 'जो गुरु मुझे निरन्तर हित-शिक्षा देते रहते हैं, उन गुरुओं की मुझे निरन्तर पूजा करनी उचित है'। टीका-इस काव्य में इस बात का प्रकाश किया गया है कि साधु अपने मन में यह बात सदैव निश्चयरूप से विचारता रहे कि जो साधु अपने कल्याण के भागी हैं, उनके लिए लज्जा-अपवाद, भयरूप, दया-अनुकम्पा रूप-संयम-पृथ्वी आदि जीव रक्षा रूप ब्रह्मचर्यविशुद्धतपोऽनुष्ठान रूप ये सब आत्मविशुद्धि के स्थान हैं अर्थात् कर्म-मल को दूर करने के स्थान हैं। क्योंकि ये सब सन्मार्ग की प्रवृत्ति के कारण हैं तथा जो गुरु मुझे सदैव कल्याणरूप मार्ग में ले जाने के लिए शिक्षा देते रहते हैं, उन गुरूओं की मैं सदैव शुद्ध चित्त से पूजा करता हूँ। उनकी इच्छा मुझे योग्य बनाने की है। यह बात भली भाँति मानी हुई है कि शिक्षक की इच्छा शिष्य को केवल योग्य बनाने की ही हुआ करती है, इसी लिए शिक्षा देने वाले गुरुजनों की नित्यप्रति पूजा अर्थात विनय भक्ति करनी चाहिए। उनसे बढ़ कर संसार में और कोई पूजा के योग्य नहीं है। इस उपर्युक्त कथन से यह बात भली-भाँति सिद्ध हो जाती है कि गुरुओं की शिक्षा समयानुसार तथा व्यक्त्यनुसार मधुर और कटु दोनों ही प्रकार की होती है। इसलिए प्रसंगोपात्त यदि कभी गुरुश्री कटु शिक्षा दें तो शिष्य को गुरु पर क्रोध नहीं करना चाहिए; प्रत्युत जिस शिक्षा से लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य की परिवृद्धि होती है, उसके शिक्षक गुरु के प्रति उपर्युक्त पद्धति से विनय भक्ति ही सदृढ़ करनी चाहिए। 367 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्