________________ जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे। सकारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा अनिच्चं॥१२॥ यस्यान्तिके धर्मपदानि शिक्षेत, तस्यान्तिके वैनयिकं प्रयुञ्जीत। सत्कारयेत् शिरसा प्राञ्जलिकः, कायेन गिरा भो मनसा च नित्यम्॥१२॥ पदार्थान्वयः-जस्संतिए-जिसके समीप धम्मपयाई-धर्मशास्त्रों को सिक्खे-सीखे तस्संतिए-उस गुरु के समीप शिष्य को सदा वेणइयं-विनय का पउंजे-प्रयोग करना चाहिए। किस प्रकार करना चाहिए इसके लिए गुरु कहते हैं कि भो-हे शिष्य ! पंजलीओ-हाथ जोड़कर सिरसा-सिर से तथा कायग्गिरा-वचन और शरीर से अ-तथा मणसा-मन से निच्चं-सदा काल शिष्य, गुरु का सक्कारए-सत्कार करे। मूलार्थ-शिष्य का कर्त्तव्य है कि जिस गुरु से आत्मविकासी धर्मशास्त्रों के गूढ़ पदों की शिक्षा ले, उसकी पूर्ण रूप से विनय भक्ति करे अर्थात् हाथ जोड़ कर सिर से नमस्कार करे और मन, वचन, काय के योग से सदैव काल यथोचित सत्कार करे। ___टीका-जिन धर्म पदों के शिक्षण से या मनन से आत्म गुणों का विकास होता है, उन धर्म पदों (सिद्धान्त पदों) की कल्याणकारिणी शिक्षा, जिस गुरु से ली जाए, उस गुरु की शिष्य को विनय भक्ति यथाशक्ति करनी चाहिए। यह विनय भक्ति सत्कार सम्मान कई प्रकार से होती है, प्रथम सत्कार नमस्कार का होता है। क्योंकि यह 'नमस्कार' अवश्य ही जिसको नमस्कार किया जाता है उसकी गुरुता का और अपनी हीनता का द्योतक होता है। जब मनुष्य स्वयं को हीन समझेगा, तभी वह हीनता से गुरुता की ओर बढ़ेगा।अतः शिष्य, कर युग जोड़ कर मस्तक झुका कर गुरुश्री को प्रणाम करे। दूसरी विनय शरीर से होती है / यथा-गुरु के पधारने पर खड़ा होना, पैर पोंछने, आहार पानी लाकर देना, रूग्णावस्था आदि में चरण चंपी (दबाना) करना आदि। तीसरा सत्कार वचन का होता है। यथा-कहीं आते जाते प्रेमपर्वक'मत्थएण वंदामि' कहना, प्रसंगोपात्त स्तुति करना, गुरुश्री की किसी कार्य के लिए आज्ञा मिलने पर तहति, आदि स्वीकारार्थक शब्द बोलना आदि। चौथी विनय मन की होती है। यथा-गुरु को सर्वोपरि पूज्य मानना, गुरु को क्लेशप्रद कारणों के न होने का नित्य ध्यान रखना, गुरूश्री में उत्कृष्ट एवं अविचल श्रद्धा विश्वास रखना आदि। सूत्र में जो 'नित्य' पद पढ़ा गया है, उसका यह भाव है कि यह गुरु-भक्ति केवल श्रुताध्ययन के समय में ही नहीं प्रतिपादन की गई है; परन्तु यह गुरुभक्ति सदैव काल करनी नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [366