________________ जहाहि-अग्गी जलणं नमसे, नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं / एवायरिअं उवचिट्ठइजा, अणंतनाणोवगओ वि संतो॥११॥ यथा आहिताग्निः ज्वलनं नमस्यति, ___नानाहुतिमन्त्रपदाभिषिक्तम् / एवमाचार्यमुपतिष्ठेत् - अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन्॥११॥ पदार्थान्वयः- जहा-जिस प्रकार आहि अग्गी-अनि पूजक ब्राह्मण नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं-नाना प्रकार की आहुतियों और मंत्र-पदों से अभिषिक्त की हुई जलणंअग्नि को नमसे-नमस्कार करता है एव-उसी प्रकार अणंतना-णोवगओ वि संतो-अनन्त ज्ञानधारी होने पर भी शिष्य आयरिअं-आचार्य की उवचिट्ठइज्जा-विनय पूर्वक सेवा भक्ति करे। मूलार्थ-जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण, मधु-घृतादि की विविध आहुतियों से एवं मंत्रों से अभिषिक्त अग्नि की नमस्कार आदि से पूजा करता है; ठीक उसी प्रकार अनन्तज्ञानसंपन्न हो जाने पर भी शिष्य को आचार्य श्री की नम्रभाव से उपासना करनी उचित है। - टीका-इस काव्य में गुरूभक्ति का दृष्टान्त द्वारा वर्णन किया गया है। यथा-जो ब्राह्मण अग्रिहोत्री बनने के लिए अपने घर में अग्नि स्थापन करता है, वह अग्नि को नाना प्रकार की मधु-घृत प्रक्षेपादि रूप आहुतियों से तथा 'अग्नये स्वाहा' आदि मंत्र-पदों से अभिषिक्त करता है और फिर उस दीक्षा संस्कृत अग्नि की निरन्तर भक्ति भाव से पूजा करता है; ठीक तद्वत् सुशिष्य भी स्वपरपर्यायविषयक अनन्तज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर भी आचार्य की भक्ति भावना पूर्वक उपासना करता है। तात्पर्य इतना ही है कि, जिस प्रकार क्रिया-काण्डी ब्राह्मण दत्तचित से अग्नि की पूजा करता है, उसी प्रकार विनयी शिष्य को भी अपने गुरु की उपासना करनी चाहिए। भले ही आप अनन्तज्ञानी हों और गुरु अल्पज्ञानी हों। ज्ञान का गर्व करके कदापि गुरु-सेवा से पराङ्मुख नहीं होना चाहिए। यहाँ सूत्रोक्त 'अनन्त ज्ञान' से केवल ज्ञान का ग्रहण है या अन्य किसी ज्ञान का, इस विषय पर टीकाकारों ने कोई स्पष्टतः उल्लेख नहीं किया है, तथापि यहाँ यह अवश्य है कि, वस्तु के अनन्त पर्यायों के जानने से ही अनन्तज्ञान कहा जाता है। सूत्र में जो "आहिताग्नि" पद पढ़ा है, उसका स्पष्ट अर्थ यह है कि, "कृतावसथादि ब्राह्मणो" जिसने उपासना करने के लिए अपने स्थान में अग्नि की स्थापना की है, वह ब्राह्मण। उत्थानिका-अब फिर इसी विषय को स्पष्ट करके दिखलाया जाता है:३६५ ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्