________________ किसी भी मंत्र यंत्रादि साधन से संभव एवं सरल नहीं हो सकती। अतः मोक्ष-पद के उत्कट / अभिलाषी शिष्यों को भूलकर भी गुरु की आशातना नहीं करनी चाहिए। उत्थानिका- अब, सूत्रकार आचार्य की अप्रसन्नता से अबोधित की प्राप्ति बतलाते हैं: आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, ___ अबोहिं आसायण नत्थि मोक्खो। तम्हा अणाबाह सुहाभिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिजा॥१०॥ आचार्यपादाः पुनः अप्रसन्ना, अबोधिमाशातनया नास्ति मोक्षः। . तस्मात् अनाबाधसुखाभिकाझी, गुरुप्रसादाभिमुखोः रमेत॥१०॥ पदार्थान्वयः-आयरिअपाया-पूज्यपाद आचार्य अप्पसन्ना-अप्रसन्न हुए अबोहिअबोधिकारक होते हैं, अतः यह निश्चित है कि, आसायण-आशातना से मोक्खो-मोक्ष नत्थिनहीं होता है तम्हा-इस लिए अणाबाहसुहाभिकंखी-मुक्ति के अनाबाध सुख की इच्छा रखने वाला भव्य जीव गुरुप्पसायाभिमुहो-गुरु की प्रसन्नता के लिए रमिजा-सचेष्ट प्रवृत्ति करे। मूलार्थ- पूज्यपाद आचार्यों को अप्रसन्न करने वाले व्यक्ति को अबोधि की प्राप्ति होती है तथा वह कदापि मोक्ष के सुख का भागी नहीं बन सकता। अतएव अनाबाध मुक्ति सुख की इच्छा करने वाले सज्जनों का कर्त्तव्य है कि, वे अपने धर्म गुरुओं को प्रसन्न करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहें। ___टीका-इस काव्य में गुरुभक्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। यथा-यदि पूज्यपाद आचार्य किसी कारण से अप्रसन्न हो जाएँ तो शिष्य को मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है। कारण कि, गुरु द्वारा सम्यग्ज्ञान के पढ़े बिना शङ्काएँ उत्पन्न होंगी और फिर आत्मा मिथ्यात्व की ओर प्रवृत्त हो जाएगी। अतः मुनि के बाधा रहित अनुपम सुखों की इच्छा करने वाले भव्य व्यक्ति को योग्य है कि, वह गुरु को प्रसन्न रखने के लिए सदैव उद्यत रहे अर्थात् जिन-जिन क्रियाओं के करने से गुरुदेव प्रसन्न होकर ज्ञानदान देते रहें, वे क्रियाएँ अवश्य शिष्य को करने योग्य हैं / इस कथन से यह स्पष्टतया सिद्ध हो गया है कि, मोक्षसुखाभिलाषी को गुरुभक्ति अवश्यमेव करनी चाहिए। क्योंकि, गुरुदेव ही सच्चे मोक्ष-पद प्रदर्शक हैं। उत्थानिका-अब सूत्रकार, अग्नि की उपमा से गुरुश्री की पूज्यता बतलाते हैं: नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [364.