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________________ जिस तरह उपर्युक्त तीनों काम करने वाले मूर्ख हैं और अपने कर्मों से दुःख पाते हैं, उसी प्रकार जो दुर्मति शिष्य, अभिमान से आचार्य की येन केन प्रकारेण आशातना करता है, वह सब मूर्ख शिरोमणियों का भी शिरोमणि है; वह इस लोक और परलोक दोनों में अतीव महान् दुःख पाता है। उसके उपार्जित संयम कर्म सब निष्फल हो जाते हैं और मोक्ष नहीं मिल सकता। उत्थानिका-अब सूत्रकार, दृष्टान्त और दार्टान्तिक में महान् अन्तर दिखलाते हैं:सिआ हु सीसेण गिरि पिभिंदे, सिआ हु सीहो कुविओ न भक्खे। सिआ न भिंदिज व सत्तिअग्गं, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए॥९॥ स्यात् खलु शिरसा गिरमपि भिन्द्यात्, . स्यात् सिंहः कुपितो न भक्षयेत्। स्यात् न भिन्द्यात् वा शक्त्यग्रं, . न चापि मोक्षो गुरुहीलनया॥९॥ पदार्थान्वयः-सिआ-कदाचित् हु-निश्चय ही कोई सीसेण-सिर से गिरिंपि-पर्वत को भी भिंदे-भेदन कर दे सिआ-कदाचित् कुविओ-कुपित हुआ सीहो-सिंह भी हु-निश्चय ही . न भक्खे-भक्षण न करे वा-तथा सिआ-कदाचित् सत्तिअग्गे-प्रहार की हुई शक्ति की धारा भी न भिंदिज-हस्तादि को खण्डित न करे; ये सब बातें तो कदाचित् हो भी सकती हैं, किन्तु न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए-गुरु की अवहेलना करके कोई मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता। - मूलार्थ-कदाचित् कोई सिर की टक्कर से पर्वत को भी फोड़ दे, कुपित हुआ सिंह भी न मारे, शक्ति की धारा पर प्रहार किए हुए भी हस्त पादादि न कटें; किन्तु गुरुहीलना-कारक शिष्य, कभी मोक्ष पाकर दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकता। टीका-इस काव्य में पूर्व अलङ्कारों के विषय में विशेषता दिखलाई गई है। यथा - कोई शक्तिशाली वासुदेव आदि महापुरुष अपने सिर की एक टक्कर से ही पर्वत को खण्ड-खण्ड करके भेदन कर सके तथा मंत्र आदि की सामर्थ्य से कुपित हुआ सिंह भी बकरा हो जाए और . मार न सके तथा किसी देवानुग्रह से शक्ति की तीक्ष्ण धारा भी प्रहार करने पर तिलमात्र चोट न पहुँचा सके। ये सब बातें, जो पूरी असंभव दिखाई देती हैं, साधनवशात् पूर्णतया संभव हो सकती हैं। परन्तु गुरु की आशातना करने से जो दुष्कर्म बंधते हैं, उनका फल भोगे बिना दूषित वाक्य बोलने वाले शिष्य को मोक्ष संभव नहीं हो सकता है उसे मोक्ष संभव कराने में मंत्र, तंत्र, जड़ी-बूटी आदि कोई भी वस्तु फलीभूत नहीं हो सकती। सूत्रकार का स्पष्ट एवं संक्षिप्त भाव यह है कि, स्व-शक्ति किंवा देव-शक्ति द्वारा असंभव से असंभव और कठिन से कठिन कार्य भी सुसंभव एवं सुसरल हो सकते हैं, परन्तु गुरुश्री की अवहेलना से मोक्ष-पद प्राप्ति कदापि 363 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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