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________________ सकता है अर्थात् सांसारिक दुःखों से छुटकारा नहीं पा सकता। कारण यह है कि, आशातना, संसार परिभ्रमण का मूल कारण है। सूत्रकार के इस कथन का सारांश इतना ही है कि किसी औषधि आदि द्वारा या मंत्र आदि द्वारा उक्त अग्नि आदि पदार्थ, विपर्यय किए जा सकते हैं; परन्तु गुरुओं की आशातना की हुई, कभी विपर्यय नहीं हो सकती। चाहे कुछ भी हो, वह तो अपना फल अवश्य देती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, पर्वत भेदन आदि की उपमा देकर गुरुश्री की आशातना करने का निषेध करते हैं:जो पव्वयं सिरसा भित्तुमिच्छे, ___ सुत्तं वा सीहं पडिबोहइज्जा। जो वा दए सत्तिअग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं॥८॥ .. यः पर्वतं शिरसा भेत्तुमिच्छेत्, .. सुप्तं वा सिंहं प्रतिबोधयेत्। यो वा ददीत शक्त्यग्रे प्रहारं, एषा उपमा आशातनया गुरूणाम्॥८॥ पदार्थान्वयः-जो-जो कोई पुरुष पव्वय-पर्वत को सिरसा-सिर से भित्तुं-फोड़ने की इच्छा करे व-तथा कोई पुरुष सुत्तं-सोते हुए सीहं-सिंह को पडिबोहइज्जा-प्रतिबोधित करे वा-तथा जे-जो कोई सत्तिअग्गे-शक्ति की धारा पर पहारं-हाथ पैर आदि का प्रहार दए-मारे; एसोवमा-सो ये ही सब उपमाएँ गुरुणं-गुरुओं की आसायणया-आशातना से जाननी चाहिए। मूलार्थ-जो मदान्ध शिष्य गुरुजनों की आशातना करता है, वह कठिन पर्वत को मस्तक की टक्कर से फोड़ना चाहता है, सोते हुए सिंह को जगाता है तथा शक्ति की तीक्ष्ण धार पर अपने हाथ-पैर का प्रहार करता है। टीका-जिस पर्वत को तोपों के सर्वसंहारी विशाल गोलों की वर्षा भी क्षत-विक्षत नहीं कर सकती, उसी पर्वत को जो स्वयं टक्कर मार मार कर चकना चूर करना चाहता है, वह मूर्ख है। क्योंकि, इससे अपना सिर टकराकर खंड-खंड हो जाता है और पर्वत का कुछ नुकसान नहीं होता। जिस सिंह का दर्शन मात्र भी प्राणों को कँपा देता है, उसी सोते हुए केसरी को जो निरस्त्र पुरुष लात मार कर जगाता है, वह मूर्ख है। क्योंकि, इससे सिंह की कुछ हानि नहीं होती। प्रत्युत हानि उसी की है। वह ही अपने जीवन से हाथ धोकर काल के मुख में जा पड़ता है। जिस शक्ति की धारा जरा सी भी लगी हुई शरीर से रक्त धारा बहा देती है, उसी शक्ति की. धारा को जो पाद प्रहार एवं मुष्टि प्रहार करके तोड़ता है; वह निश्चय ही महामूर्ख है। क्योंकि, इस से शक्ति की धारा खण्डित नहीं होती, प्रत्युत प्रहार करने वाले के ही हाथ-पैर कट जाते हैं एवं नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [362
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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