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________________ देखने मात्र से हृदय दहल उठता है, उसी सर्प को जो क्रीड़ा, मनोरञ्जन के वास्ते छेड़ कर अतिशय क्रुद्ध करता है, वह निश्चय ही मूर्ख है। किञ्च-जिस विष की एक नन्हीं सी बूंद ही क्षणमात्र में अनेक मनुष्यों के जीवन का अन्त कर सकती है; उसी भयंकर विष को जो आयु वृद्धि के लिए यथेच्छ पीता है, वह भी मूर्ख शिरोमणि है। ये तीनों काम करने वाले जिस तरह एक से एक बढ़कर मूर्ख हैं, उसी तरह वह भी मूर्ख है, जो धर्मोपदेशक आचार्य श्री जी की अभिमान या प्रमाद के कारण से आशातना करता है। सारांश यह है कि, जिस प्रकार पूर्वोक्त क्रियाएँ क्रिया-कारक को महाकष्ट देने वाली होती हैं, ठीक उसी प्रकार गुरुजनों की आशातना भी आशातनाकारक शिष्य को महान् कष्ट पहुँचाती है। . उत्थानिका- अब पूर्वसूत्रोक्त उपमाओं से आशातना की विशेषता दिखलाई जाती है:सिआ हु से पावय नोडहिज्जा, आसीविसो वा कुवियो न भक्खे। सिआ विसं हलाहलं न मारे, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए॥७॥ स्यात् खलु स पावकः न दहेत्, आशीविषो वा कुपितो न भक्षयेत्। स्यात् विषं हलाहलं न मारयेत्, न चापि मोक्षो गुरूहीलनया॥७॥ पदार्थान्वयः-सिआ-कदाचित् से-वह पावय-प्रचण्ड-अग्नि हु-निश्चय ही नोडहिज्जादहन न करे वा-अथवा कुवियो-कुपित हुआ भी आसीविसो-आशीविष सर्प न भक्खे-नहीं काटे वि-इसी प्रकार सिआ-कदाचित् से-वह हलाहलं-हलाहल नामक तीव्र विष भी खाया हुआ न मारे-न मारे, किन्तु गुरुहीलणाए-गुरु की हीलना से न आवि मुक्खो -मोक्ष कभी नहीं होता है। .. मूलार्थ-कदाचित् अपक्रमण की हुई प्रचण्ड अग्नि भी भस्म न करे, छेड़ा हुआ क्रुद्ध सर्प भी न काटे तथा खाया हुआ हलाहल विष भी न मारे, अर्थात् ये सब बातें असंभव भी संभव हो सकती हैं, परन्तु गुरु की आशातना करने वाले दुर्बुद्धि शिष्य को मोक्ष संभव नहीं हो सकता है। ____टीका-इस काव्य में उक्त विषय की विशेषता दिखलाई गई है। यथा-कदाचित् मंत्रादि के प्रतिबन्ध से पूर्वोक्त जलती हुई अग्नि भी पाँव को भस्म न कर सके। कदाचित् मंत्र आदि के बल से कुपित हुआ भी पूर्वोक्त सर्प किसी प्रकार की क्षति न पहुँचा सके। इसी प्रकार मंत्रादि के योग से पूर्वोक्त हलाहल नामक भयंकर विष भी खाया हुआ मारक न हो सके। परन्तु जो गुरुओं की आशातना की हुई है, उसके अशुभ फल भोगे बिना कोई भी जीव मुक्त नहीं हो 361 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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