________________ वैसे तो अनेकानेक कठोर से कठोर जप तप क्रियाएँ करता है तथा शुद्ध, साधुता द्वारा मोक्ष पाने के लिए कठोरतम परिश्रम करता है; परन्तु साथ ही आचार्य श्री की आशातना करता है, तो उस साधु को मोक्ष नहीं मिल सकता, उसका समस्त क्रिया काण्ड निष्फल ही जाता है। अत: यदि मोक्ष पाने की सच्ची अभिलाषा है तो विनय द्वारा गुरु श्री को हमेशा प्रसन्न रखना चाहिए। गुरु श्री की प्रसन्नता में ही मोक्ष है। उत्थानिका—अब फिर यही विषय स्पष्ट किया जाता है:जो पावगं जलिअमवक्कमिजा, आसीविसं वाविहु कोवइज्जा। जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमासायणया गुरुणं॥६॥ यः पावकं ज्वलितमपक्रामेत् , आशीविषं वाऽपि ही कोपयेत्। 8 यो वा विषं खादति जीवितार्थी, एषा उपमा आशातनया गुरुणाम्॥६॥ पदार्थान्वयः-जो-जो कोई जलिअं-प्रज्वलित पावगं-अग्नि को पैरों से वक्कमिज्जाअपक्रमण करे वा-अथवा आसीविसं वि-आशीविष सर्प को भी हु-निश्चय ही कोवइज्जाक्रोधित करे वा-अथवा जीविअट्ठी-जीवन का अर्थी होकर जो-जो कोई विसं-हलाहल विष को खायइ-खाए एसोवमा-ये सब उपमाएँ गुरुणं-गुरुओं की आसायणया-आशातना से सम्बन्ध रखने वाली हैं। मूलार्थ-जो अभिमानी शिष्य, आचार्य जी की आशातना करता है, वह प्रचण्ड धधकती हुई अग्नि को पैरों से मलकर बुझाता है, बड़े भारी जहरी सर्प को कुद्ध करता है तथा जीने की इच्छा से सद्यः प्राणहारी हलाहल' नामक विष को खाता है। टीका-इस काव्य में भी उपमा द्वारा गुरु की आशातना करने का फल दिखलाया गया है। यथा-गुरु श्री की आशातना करने वाले मदान्ध शिष्य, अपने मन से पूरे अनुभवी दिग्गज पण्डित बनते हैं परन्तु वे वास्तव में बिल्कुल मूर्ख और अज्ञानी हैं। जिसे अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं तथा अपने कर्तव्य का कुछ भान नहीं, वह मूर्ख नहीं है तो फिर और क्या हो सकता है। अवश्य ही वह मूर्ख-मूर्ख नहीं, महामूर्ख है। सूत्रकार स्वयं ही ऐसे अभिमानी शिष्य की मूर्खता प्रकट करते हुए कहते हैं कि, जिस धधकती हुई, प्रतिपल में भीषण रुप धारण करने वाली अग्नि के पास से गमन करने तक में भय रहता है, उसी अग्नि को जो पैरों से कुचल-कुचल कर बुझाने की चेष्टा करे, वह मूर्ख है। जिस करिकराकार (हाथी सूंड के समान) कृष्ण सर्प के नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [360