SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गया है तो फिर आचार्य वा गुरु की निन्दा के विषय में तो कहना ही क्या है। सूत्रकार ने जो यह लघुसर्प का दृष्टान्त देकर आचार्य की आशातना का कुफल प्रदर्शित किया है, इसका स्पष्ट भाव यह है-जिस प्रकार लघुसर्प की आशातना इस लोक में हितकर नहीं होती, उसी प्रकार आचार्य गुरु की आशातना भी इस लोक और परलोक दोनों में हितकर नहीं होती है। अतः हिताभिलाषी शिष्य का कर्तव्य है कि वह कदापि गुरुजनों की आशातना न करे। उत्थानिका—अब सूत्रकार, दृष्टान्त और दार्टान्तिक में महान् अन्तर दिखलाते हैं:आसीविसो वावि परं सुरुट्ठो, किं जीवनासाउ परं नु कुज्जा। आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, __ अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो॥५॥ आशीविषश्चाऽपि परं सुरुष्टः, किं जीवितनाशात् परं नु कुर्यात्। आचार्यपादाः पुनः अप्रसन्ना, - अबोधिमाशातनया नास्ति मोक्षः॥५॥ पदार्थान्वयः-परं-अत्यन्त सुरुट्ठो-क्रुद्ध हुआ आसीविसो वावि-जहरीला साँप भी जीवनासाउ-प्राण नाश से परं-अधिक और किंनु कुज्जा-क्या कर सकता है। पुण-परन्तु आयरिअपाया-पूज्यपाद आचार्य तो अप्पसन्ना-अप्रसन्न हुए अबोहिं-अबोधि के करने वाले होते हैं, अत: आसायण-आशातना से मुक्खो -मोक्ष नत्थि-नहीं होता। मूलार्थ- अतीव क्रुद्ध हुआ भी दृष्टि-विष सर्प, बेचारा प्राण नाश से अधिक और क्या कर सकता है, कुछ नहीं। परन्तु पूज्यपाद आचार्य तो अप्रसन्न हुए उस अबोधि को करते हैं, जिससे अनेक जन्म जन्मान्तरों में असह्य दुःख भोगने पड़ते हैं। अतः आचार्य की आशातना करने से कभी मोक्ष नहीं मिल सकता। टीका-इस काव्य में दृष्टान्त और दार्टान्तिक का महदन्तर दिखलाया गया है। आशीविष नामक महा जहरीला सर्प यदि कभी छेड़ा हुआ अतिशय कुपित हो जाए, तो भी वह प्राण नाश से बढ़ कर और कुछ नहीं कर सकता। अर्थात् क्रुद्ध सर्प अधिक से अधिक मृत्यु दण्ड दे सकता है। इस से आगे की कोई बात उसके बस की नहीं। परन्तु यदि कभी आशातना द्वारा पूज्य आचार्य अप्रसन्न हो जाए तो उनकी अप्रसन्नता के कारण से अज्ञान की प्राप्ति होती है और अज्ञान से मिथ्यात्व की प्राप्ति अपने आप हो जाती है। इसमें सन्देह नहीं है। अन्तत मिथ्यात्व की प्राप्ति से आशातनाकारक को अनन्त संसार चक्र में परिभ्रमण करना पड़ता है। सूत्रकार ने आशातना का यह अबोधि फल तो बतलाया ही है, परन्तु "आसायण नत्थि मुक्खो" पद देकर तो और भी दुर्विनीत शिष्यों की आँखें खोल दी हैं। इस वाक्य का यह आशय है कि, जो साधु 359 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy