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________________ आत्मिक गुणों में भली भाँति स्थित साधु , अणुमात्र भी हीलना करने योग्य नहीं हैं। अतएव इन गुरुजनों की भूलकर भी कभी आशाता नहीं करनी चाहिए। कारण यह है कि, जिस प्रकार प्रचण्ड अग्नि-शिखा क्षण मात्र में बड़े बड़े इन्धन आदि पदार्थों के समूह को भस्मसात् करती (जला देती) है, इसी प्रकार गुरुजनों की की हुई हीलना भी, करने वाले साधु के ज्ञानादि गुणों को भस्म कर देती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, सर्प की उपमा देकर अल्पवयस्क गुरूजनों की हीलना से होने वाले दोषों का कथन करते हैं:---- जे आवि नागंडहरंति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ। एवायरियपि हु हीलयंतो, निअच्छइ जाइपहं खु मंदो॥४॥ यश्चापि नागं डहर इति ज्ञात्वा, आशातयति तस्य अहिताय भवति। एवमाचार्यमपि हीलयन्, नियच्छति जातिपन्थानं खलु मन्दः॥४॥ पदार्थान्वयः-जे अवि-जो कोई अज्ञानी पुरुष नागं-सर्प को डहरंति-छोटा बच्चा नच्चा-जानकर आसायए-उसकी कदर्थना करता है से-सो जिस प्रकार वह सर्प कदर्थक को अहिआय-अहित के लिए होइ-होता है एवं-इसी प्रकार आयरियंपि-आचार्य की हीलयंतोहीलना करता हुआ मंदो-मूर्ख भी खु-निश्चय ही जाइपहं-एकेन्द्रिय आदि जातियों के मार्ग को निअच्छइ-जाता है। ___मूलार्थ-जिस प्रकार यह तो बहुत छोटा है, यह क्या कर सकेगा' इस विचार से कदर्थित किया हुआ भी लघु-सर्प, कदर्थक को अहितकारक होता है। ठीक इसी प्रकार अल्पवयस्क आचार्य की भी हीलना करने वाला मन्द बुद्धि शिष्य, एकेन्द्रिय आदि ज्ञान शून्य जातियों के पथ का पथिक बनता है। टीका-इस काव्य में दृष्टान्त द्वारा आचार्य की आशातना करने का फल दिखलाया गया है। यदि कोई मूर्ख साँप को छोटा बच्चा जान कर उसको लकड़ी आदि से पीड़ित करता है तो वह साँप पीड़ित हुआ जिस प्रकार कदर्थना करने वाले के अहित के लिए समुद्यत होता है अर्थात् काट खाता है, इसी प्रकार जो शिष्य, अपने आपको वृद्ध या बहुश्रुत मानता हुआ किसी कारण विशेष से आचार्य-पद प्रतिष्ठित लघुवयस्क आचार्य की व गुरु महोदय की आशातना करता है, वह एकेन्द्रिय आदि दुःखमय जातियों के मार्ग को जाता है अर्थात् एकेन्द्रिय आदि . योनियों में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है। यही उक्त दृष्टान्त का अर्थोपनर्थ है। कारण यह है कि, जब सामान्य रूप से की हुई निन्दा का अन्तिम परिणाम संसार परिभ्रमण ही कथन किया नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [358
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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