________________ का पूरा-पूरा अनुभव है। अत: इन की सेवा करनी ही चाहिए इत्यादि। यह हमसे सभी तरह बड़े हैं आदि आदि। असूया उस रीति को कहते हैं जिस में स्पष्ट निन्दा की जाती है। यथातुझे क्या आता है ? तुझ से तो हम ही अच्छे जो थोड़ा बहुत कुछ जानते तो हैं / तब तो सब का सत्यानाश हो गया जो तुझ जैसे निरक्षर भट्टाचार्य गुरु बन बैठे। अवस्था भी तो कितनी छोटी है? हमें तो इस छोकरे से शिक्षा लेते लज्जा आती है इत्यादि। . सूत्रकार का यह अभिप्राय है कि विचार शील साधु को इन दोनों ही कलंको से सर्वथा पृथक् रहना चाहिए। प्रकट रुप से या गुप्त रुप से, गुरुजनों की निन्दा करके अपनी जिह्वा को अपवित्र नहीं बनाना चाहिए। उत्थानिका-अब सूत्रकार अग्नि की उपमा द्वारा गुरु की आशातना करने का निषेध करते हैं:पगईए मंदावि भवंति एगे, . डहरावि जे सुअबुद्धोववेआ। आयारमंता गुणसुट्टिअप्पा, . जे हीलिआ सिहिरिव भास कुज्जा॥३॥ प्रकृत्या मन्दा अपि भवन्ति एके, 'डहरा अपि च ये श्रुत-बुद्ध्युपपेताः। आचारवन्तो गुणस्थितात्मानः, __ये हीलिताः शिखीव भस्म कुर्युः॥३॥ पदार्थान्वयः-एगे-कोई एक वयोवृद्ध साधु पगईए-प्रकृति से मंदावि- मन्द बुद्धि भी भवंति-होते हैं अ-तथा जे-कोई एक डहरावि-अल्पवयस्क साधु भी सुअबुद्धोववेआ-श्रुत और बुद्धि से युक्त भवंति-होते हैं तथा कोई एक आयार मंतो-आचार वाले और गुणसुट्टिअप्पागुणों में स्थिर आत्मा वाले होते हैं, अस्तु जे-जो ये साधु हीलिआ-हीलना किए हुए सिहिरिवअग्नि के समान भासं-गुणों को भस्मसात् कुजा-करते हैं। ____ मूलार्थ-बहुत से वयोवृद्ध मुनि भी स्वभाव से मन्द बुद्धि होते हैं तथा बहुत से छोटी अवस्था वाले नवयुवक भी श्रुतधर एवं बुद्धिशाली होते हैं। अतः ज्ञान में न्यूनाधिक कैसे ही हों, परन्तु सदाचारी और सद्गुणी गुरुजनों की कभी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि इनकी अवज्ञा अग्नि के समान सभी सद्गुणों को भस्मीभूत कर देती है। टीका-इस काव्य में उपमालङ्कार से गुरु श्री की आशातना करने का फल दिखलाया गया है। यथा-कोई साधु बड़ी अवस्था वाले तो होते हैं, किन्तु स्वभाव से ही मन्द बुद्धि अर्थात् सत्प्रज्ञा विकल, कर्म की विचित्रता से सद्बुद्धि रहित होते हैं तथा इसके विपरीत कोई साधु छोटी अवस्था वाले भी श्रुत और बुद्धि से युक्त होते हैं। परन्तु ये सब आचार संपन्न और 357 ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्