SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जे आवि मंदत्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुअत्ति नच्चा। हीलंति मिच्छं पडिवजमाणा, करंति आसायण ते गुरुणं॥२॥ ये चापि मन्द इति गुरु विदित्वा, डहरो( अल्पवयाः)ऽ यमल्पश्रुत इति ज्ञात्वा। हीलयन्ति( अनाद्रियन्ते )मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमानाः, कुर्वन्ति आशातनां ते गुरुणाम्॥२॥ पदार्थान्वयः-जे आवि-जो द्रव्य साधु गुरुं-गुरु को मंदत्ति-यह मन्द है ऐसा विइत्ताजानकर अथवा इमे-यह डहरे-अल्पवयस्क है, अतः अप्पसुअत्ति-यह अल्पश्रुत है ऐसा नच्चाजानकर हीलंति-गुरु की अवहेलना करते हैं ते-वे मिच्छंपडिवजमाणा-मिथ्यात्व को ग्रहण करते हुए गुरुणं-गुरुओं की असायण-आशातना करते हैं। मूलार्थ-जो दुर्बुद्धि शिष्य अपने गुरुओं को मन्दबुद्धि , अल्पवयस्क एवं अल्पज्ञ जान कर उनकी हीलना (निन्दा) करते हैं; वे मिथ्यात्वभाव को प्राप्त हुए अपने गुरुजनों की बड़ी भारी आशातना करते हैं। टीका-इस काव्य में इस बात का वर्णन किया गया है कि , मिथ्यात्व का ग्रहण किस प्रकार किया जा सकता है, जैसे कि, जो कोई द्रव्यलिङ्गी साधु, अपने गुरु के विषय में यह मेरा गुरु मूर्ख है, सत्प्रज्ञा-विकल है, शास्त्रों की युक्तियों का विचार करने में असमर्थ है अथवा यह छोटी अवस्था वाला है, इतना ही नहीं किन्तु अल्पश्रुत है अर्थात् पठित भी नहीं है।' इत्यादि प्रकार से गुरुश्री की हीलना-अवज्ञा-निंदा करता है: वह मूर्ख शिष्य सर्व पाप शिरोमणि रुप मिथ्यात्व का बन्ध करता है, जिससे अनन्त काल तक संसार अटवी में परिभ्रमण करना पड़ता है। अतएव किसी भी दशा में किसी प्रकार से शिष्य को गुरु की हीलना नहीं करनी चाहिए। कारण कि, ऐसा करने से गुरुजनों की आशातना होती है। दूसरे शब्दों में यों कहिए कि सम्यग्ज्ञान आदि की ही आशातना होती है। क्योंकि, उक्त सम्यग्ज्ञान आदि गुण गुरुओं से ही प्राप्त होते हैं और जब गुरुओं की अवहेलना की जाती है तो फिर उक्त गुणों की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है। वृक्ष का मूलोच्छेदन करके मधुर फलों को खाने की इच्छा करना बड़ी मूर्खता है; जिस की तुलना कहीं भी नहीं हो सकती। यह गुरुजनों की अवज्ञा 'सूया' और 'असूया' नामक दो रीतियों से होती है। सूया' उस रीति को कहते हैं जो ऊपर से तो स्तुतिरुप मालूम होती है। परन्तु अंदर से निंदरुप विष-नदी हिलोरें लेती रहती है। यथा-बस गुरु जी क्या हैं। विद्या में तो वृहस्पति को पराजित करने वाले हैं। सभी शास्त्रों में इन की अव्याहतगति है। वैसे भी पूर्ण वयोवृद्ध हैं, इनके अनुभवों का क्या ठिकाना है, इन्हें सभी प्रकार के धार्मिक कृत्यों नवमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [356
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy