________________ - मूलार्थ-जो शिष्य अहंकार से, क्रोध से, छल से तथा प्रमाद से गुरु-श्री की सेवा में रहकर विनय धर्म की शिक्षा नहीं लेता है; सो ये अहंकार आदि दुर्गुण उसके ज्ञान आदि सद्गुणों के उसी प्रकार नाशक होते हैं, जिस प्रकार बांस का फल स्वयं बांस का नाशक होता है। ___टीका-इस अध्ययन का नाम 'विनय समाधि' है। इसमें समाधि कारक विनय धर्म का वर्णन है। क्योंकि, जिस प्रकार वृक्ष, रथादि के योग्य होता है तथा सुवर्ण, कटक कुण्डलादि के योग्य होता है; ठीक उसी प्रकार आत्मा भी विनय धर्म के द्वारा समाधि के योग्य होती है। यद्यपि विनय के अनेक भेद हैं तथापि मुख्यतया इसके पाँच भेद वर्णन किए गए हैं। (1) लोकोपचार विनय-लौकिक फल के लिए अनेक प्रकार से विनय भक्ति, सेवा शुश्रूषा करना। (2) अर्थ विनय-धन प्राप्ति के लिए राजा एवं सेठ आदि धनाढ्य पुरूषों की विनय करना अर्थात् उनकी आज्ञाओं का पालन करना। (3) काम विनय-अभ्यास वृत्यादि द्वारा तथा धनादि द्वारा वेश्या एवं अपनी स्त्री आदि की सेवा करना। (4) भय विनय-स्वामी आदि की विनय करना। यथा-वेतनभोगी दास भयभीत होकर अपने स्वामी की (मालिक की) विनय भक्ति किया करता है। (5) मोक्ष विनय-मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरुश्री की तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की सम्यक्तया आराधना करना। यह सूत्र मोक्ष प्रतिपादक है; अतः इसमें यहाँ अन्तिम मोक्ष-विनय का ही वर्णन किया जाता है। यही सकल सुख-सम्पादक है। जो व्यक्ति, विनय धर्म को ग्रहण नहीं करते हैं; उनके विषय में सूत्रकार कहते हैं कि, जो जीव जाति, कुल आदि का अभिमान रखने वाले हैं, जो यह समझते हैं कि हम उच्च जाति वाले होकर इस नीच जाति वाले गुरु से किस प्रकार विद्याध्ययन करें; वे विनय धर्म के पात्र नहीं हो सकते तथा जो क्रोधी हैं, बात-बात में आगबबूला होते हैं, गुरु से शिक्षा लेते समय जिनकी त्यौरियां चढ़ जाती हैं, वे भी विनय धर्म के अधिकारी नहीं हो सकते। किञ्च जो मायावी हैं, शिक्षा के डर से "आज तो मेरे पेट में दर्द हो रहा है सिर दुःख रहा है" इत्यादि छलकपट करके खाली पड़े रहने में प्रसन्न रहते हैं, वे भी विनय धर्म द्वारा कभी अपनी आत्मा को उन्नत नहीं कर सकते तथा जो प्रमादी हैं, जिन्हें पढ़ने, लिखने, सेवा करने में जोर पड़ता है, वे भी गुरुश्री के समीप विनय धर्म की शिक्षा नहीं ले सकते। भाव यह है कि उक्त अवगुण वाले व्यक्ति, गुरुश्री के पास विनय करने में कदापि नहीं ठहर सकते / वे अवसर पाकर झट पट विनय धर्म की मर्यादा से च्युत हो जाते हैं। क्योंकि ये अहंकार आदि दर्भाव विनय शिक्षा में विघ्र के हेत हैं। इन उपर्युक्त अहंकार आदि भावों का यह फल होता है कि, ये अहंकार आदि दुर्गुण उस जड़मती शिष्य के अभूतिभाव के लिए होते हैं एवं अभूतिभाव के होने से ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप जो भाव प्राण हैं, उनके विनाश के लिए भी होते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार बांस का फल बांस के नाश के लिए ही होता है. ठीक तदत अहंकार आदि भाव भी ज्ञानादि के लिए ही माने गए हैं तथा जिस प्रकार बांस परस्पर के संघर्षण से नाश को प्राप्त हो जाते हैं, तद्वत् अहंकारादि भाव भी आत्म शक्तियों को विकसित न होने के लिए प्रबलतम कारण बन जाते हैं। उत्थानिका-अब सूत्रकार, गुरुश्री को अल्पश्रुत समझ कर निन्दा करने वाले कुशिष्यों के विषय में कहते हैं:३५५ ] दशवैकालिकसूत्रम् [नवमाध्ययनम्