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________________ अह विणय समाही णाम णवमज्झयणं अथ 'विनय समाधि' नामक नवम अध्ययन। उत्थानिका- आठवें अध्ययन में आचार प्रणिधि का वर्णन करते हुए कथन किया है कि "आचारप्रणिधियुक्त साधु ही निरवद्य वचन बोल सकता है। अतः साधु को आचार प्रणिधि में यत्नवान् होना चाहिए।" जो साधु, आचार प्रणिधि वाला होता है, वह यथोचित. विनयधर्मसंपन्न होता है; क्योंकि बिना विनय धर्म के आचार प्रणिधि का भली भांति पालन नहीं हो सकता। अतः आठवें अध्ययन के अनन्तर नवम 'विनय-समाधि' नामक अध्ययन का वर्णन किया जाता है। यही इन दोनों अध्ययनों का परस्पर सुदृढ़ सम्बन्ध है। नवम अध्ययन का प्रथम सूत्र इस प्रकार है:थंभा व कोहा व मयप्पमाया, __ गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे। सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होई॥१॥ स्तम्भाद्वा (मानाद्वा) क्रोधाद्वा मायाप्रमादात्, गुरोः सकाशे विनयं न शिक्षेत। स चैव तु तस्य अभूतिभावः, फलमिव कीचकस्य वधाय भवति॥१॥ पदार्थान्वयः-थंभा-अहंकार से वा-अथवा कोहा-क्रोध से अथवा मयप्पमायामाया से एवं प्रमाद से, जो गुरुस्सगास-गुरुदेव के समीप विणयं-विनय न सिक्खे-नहीं सीखता है सो चेव-सो वे अहंकार आदि उ-निश्चय ही तस्स-उस साधु की अभूइ भावो-ज्ञानादि सम्पत्ति के नाश के लिए होते हैं, व-जिस प्रकार कीअस्स-बांस का फलं-फल स्वयं बांस के वहाय-नाश. के लिए होइ-होता है।
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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