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________________ होकर अनंत नीलाकाश में शोभा पाता है। इस काव्य में जो 'सुएण जुत्ते'- 'श्रुतेनयुक्तः' पद दिया है, उसका यह भाव है कि, काव्य के प्रथम पाद में क्रिया का विधान किया गया है, अतः द्वितीय पाद के प्रथम पाद में फिर ज्ञान विषयक वर्णन किया गया है, जिसका सारांश यह है कि ज्ञान और क्रिया के युगल से ही मोक्ष होता है, दोनों में किसी एक से ही नहीं। सूत्रकार ने चन्द्रमा की उपमा देकर शुद्ध-मुक्त जीवों का वर्णन किया है। जिस प्रकार बादलों के समूह से विमुक्त होकर चन्द्रमा चराचर जीवों का एवं प्रमेय पदार्थों का प्रकाशक हो जाता है, ठीक उसी प्रकार कर्म बादलों से विमुक्त होकर आत्मा लोकालोक का प्रकाशक हो जाता है। सम्पूर्ण अध्ययन का संक्षिप्त रूप से मननीय एवं करणीय तत्त्व यह है कि मोक्षाभिलाषी मनुष्यों को ज्ञान पूर्विका क्रिया के करने में ही पुरुषार्थ करना चाहिए; क्योंकि, सत् क्रिया पूर्वक ही अध्ययन किया हुआ श्रुतज्ञान सफलीभूत हो सकता है। "श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं, हे वत्स ! भगवान् महावीर प्रभु के मुखारविन्द से जैसा अर्थ इस अष्टम अध्ययन का सुना है, वैसा ही मैंने तुझ से कहा है। अपनी बुद्धि से कुछ भी नहीं कहा।". अष्टमाध्ययनसमाप्त। हिन्दीभाषाटीकासहितम् / अष्टमाध्ययनम् ] [353
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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