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________________ हुए, अध्ययन का उपसंहार करते हैं:से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे। विरायई कम्मघणंमि अवगए, कसिणब्भपुडावगमे व चंदिमा॥१४॥ त्ति बेमि। इअ आयार पणिही णाम अट्ठमज्झयणं। स तादृशः दुःखसहः जितेन्द्रियः, श्रुतेनयुक्तः अममः अकिंचनः।। विराजते कर्मघनेऽपगते, कृत्स्नाभ्रपुटापगमे इव चन्द्रमा॥६४॥ ___ इति ब्रवीमि। इति आचार प्रणिधि' नाम अष्टममध्ययनं समाप्तम्। पदार्थान्वयः- तारिसे-पूर्वोक्त गुण वाला दुक्खसहे-परीषहों को सहन करने वाला जिइंदिए-इन्द्रियों को जीतने वाला सुएण जुत्ते-श्रुत से युक्त अममे-ममत्व भाव से रहित अकिंचणेपरिग्रह से रहित स-वह साधु कम्मघणंमि-कर्म रूप श्याम मेघों के अवगए-अलग हो जाने पर कसिणब्भपुडावगमे-संपूर्ण अभ्रपटल से विमुक्त हो जाने पर चंदिमाव-चन्द्रमा के समान विरायइशोभा पाता है। मूलार्थ-पूर्वोक्त क्षमा दयादि सद्गुणों वाला, परीषहों (दुःखों)को समभाव से सहन करने वाला, चंचल इन्द्रियों को जीतने वाला, श्रुत विद्या को धारण करने वाला, किसी प्रकार की भी ममता नहीं रखने वाला, परिग्रह के भार से हलका रहने वाला, पूर्ण संयमी साधु कर्म रूप मेघावरण के हट जाने पर उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार सम्पूर्ण बादलों के पटल से पृथक् होने पर चन्द्रमा सुशोभित होता है। टीका- इस काव्य में उपमा अलंकारपूर्वक अध्ययन का उपसंहार किया गया है। यथा-जो पूर्वोक्त मुनि योग्य गुणों से संयुक्त है, जो सब प्रकार के भीषण से भीषण परिषहों को अविचल रूप से सहन करने वाला है, जो पाँचों इन्द्रियों को और मन को जीतने वाला है, इतना ही नहीं, किन्तु जो श्रुत विद्या से युक्त है, जो ममत्व भाव से रहित है तथा जो द्रव्य और भाव से अकिंचन है, वह साधु , ज्ञानावरणीय आदि कर्मरूप मेघ के नष्ट हो जाने पर इस प्रकार शोभा पाता है, जिस प्रकार शरत्काल में पूर्णमासी का चन्द्रमा सब प्रकार के बादलों के समूह से विमुक्त 352] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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