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________________ है। यथा- जो साधु अशनादि तप, पृथ्वी आदि के विषय में संयम व्यापार और वाचनादि स्वाध्याय योग को सदा करने वाला है, वह उसी प्रकार इन्द्रियों और कषायों की सेना से घिरा हुआ सम्पूर्ण तप प्रभृति खड्ग आदि आयुधों से अपनी आत्म रक्षा करने और पर कषाय आदि शत्रुओं के निराकरण करने में समर्थ होता है, जिस प्रकार एक शूरवीर योद्धा शस्त्र और अस्त्रों से युक्त चतुरङ्गिणी सेना द्वारा घिरा हुआ अपनी रक्षा करने में और पर शत्रुओं के निराकरण करने में समर्थ होता है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, आत्म विशुद्धि के होने का वर्णन करते हैं:सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो, - अपावभावस्स तवे रयस्स। विसुज्झइ जंसि मलं पुरे कडं, - समीरिअंरूप्पमलं व जोइणा // 3 // स्वाध्यायसद्ध्यानरतस्य त्रायिणः, अपापभावस्य तपसिरतस्य। विशुद्ध्यते यदस्यमलं पुराकृतं, संमीरितं रूप्यमलमिव ज्योतिषा॥६३॥ - पदार्थान्वयः- सज्झायसज्झाणरयस्स-स्वाध्याय रूप सद्ध्यान में रत ताइणोअपनी और पर की रक्षा करने वाले अपावभावस्सं-पाप से रहित भाव वाले तवे-तप के विषय में पूर्ण रूपेण रयस्स-रत सि-इस पूर्व गुण विशिष्ट साधु का ज-जो पुरेकडं-पूर्व जन्म कृत मलं-कर्म मल है, वह जोइणा-अग्नि द्वारा समीरिअं-तपाए हुए रूप्पमलंव-रूप्य मल के समान विसुज्झइविशुद्ध हो जाता है। मूलार्थ-स्वाध्याय रूप सद्ध्यान में रत, जगज्जीव संरक्षक एवं पापकालिमा रहित विशुद्धभाव वाले साधु का पूर्वकृत कर्म उसी प्रकार दूर हो जाता है, जिस प्रकार अग्नि द्वारा तपाए हुए सोने का एवं चाँदी का मल दूर हो जाता है। टीका- इस काव्य में फल विषयक वर्णन किया गया है। यथा- जो साधु अपनी स्वाध्याय आदि प्रधान क्रियाओं को करने वाला है, धर्म तथा शुक्लध्यान का ध्याने वाला है, अपनी और पर आत्मा की रक्षा करने वाला है, लब्धि आदि की अपेक्षा रहित होने से शुद्ध चित्त वाला है एवं यथा शक्ति अनशादि तप कर्म में रत रहने वाला है। वह पूर्वकृत कर्म मल से इस प्रकार शुद्ध हो जाता है, जिस प्रकार अग्नि से प्रेरित किया (तपाया हुआ) सोना और चाँदी, मल के निकल जाने से विशुद्ध हो जाता है। सूत्र में जो 'स्वाध्याय' शब्द दिया है, उससे आत्म ध्यान और स्वविद्या का ही ग्रहण है, लौकिक विद्या का नहीं। प्राकृत भाषा के कारण प्राकृत व्याकरण से 'अस्य' शब्द के स्थान पर 'सि' आदेश किया गया है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, आचार प्रणिधि से मोक्ष रूप महाफल की प्राप्ति बतलाते अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [351
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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