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________________ प्रधान परिआयट्ठाणं-पर्याय स्थान प्राप्त किया है तमेव-उसी आयरिअसंमएगुणे-आचार्य सम्मत गुणों में रही हुई श्रद्धा को अणुपालिज्जा-निरंतर पालन करे। मूलार्थ-जिस श्रद्धा से संसार से निकल कर प्रव्रज्या पद प्राप्त किया है, उसी आचार्यसम्मत गुणों में रही हुई श्रद्धा का साधु को, पूर्ण दृढता के साथ पालन करना उचित है। ___टीका- इस गाथा में श्री भगवान् ने शिक्षा प्रदान की है। जिस श्रद्धा से संसार रूपी कीचड़ से निकल कर परमोत्तम स्थान पर्याय पद रूप (दीक्षा) प्राप्त किया है फिर उसी श्रद्धा द्वारा जो आचार्य सम्मत पर्याय के मूल गुण वा उत्तर गुण हैं, उनकी पालना करे। कारण यह है कि, यावन्मात्र जो पर्याय के गुण हैं वे सब तीर्थंकारों को सम्मत है, सो साधु को उन गुणों का श्रद्धापूर्वक पालन करना उचित है। आचार्य सम्मत' इस लिए पाठ दिया गया है कि- 'नतु स्वाग्रहकलङ्किताम्' वे गुण आचार्य सम्मत हैं, कुछ अपनी बुद्धि से परिकल्पित नहीं है। उत्थानिका- अब शास्त्रकार; आचार प्रणिधि के विषय में कहते हैं:तवं चिमं संजमजोगं च, सज्झायजोगं च सया अहिहिए। सूरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं॥१२॥ तपश्चेदं संयमयोगं च, स्वाध्याययोगं च सदाऽधिष्ठेत्। ' शूर इव सेनया समस्तायुधः, अलमात्मनो भवति अलं परेभ्यः॥६२॥ पदार्थान्वयः-सेणाइ-सेना से घिरे हुए सम्मतमाउहे-सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों वाले सूरेवशूरवीर पुरुष के समान इम-सूत्रोक्त तवं-तप का च-तथा संजमजोगं-संयम योग का च-तथा सज्झायजोगं-स्वाध्याय योग का सया-सदा अहिट्ठिए-धारण करे अप्पणो-अपनी रक्षा करने में अलं-समर्थ होइ-होता है और परेसिं-अन्य शत्रुओं के हटाने में अलं-समर्थ होता है। मूलार्थ-बाह्याभ्यन्तर तप का धारक, संयम योग का पालक एवं स्वाध्याययोग-निष्ठ साधु, इन्द्रिय और कषाय रूप सेना से घिरा हुआ पूर्वोक्त तप आदि शस्त्रों से अपनी रक्षा करने में और कर्म शत्रुओं को पराजित करने में उसी प्रकार समर्थ होता है, जिस प्रकार एक शस्त्रधारी वीर योद्धा विशाल सेना से घिरा हुआ, आत्म रक्षा करने में और शत्रुओं का मुँह मोड़ने में समर्थ होता है। टीका-इस काव्य में आचार प्रणिधि का फल उपमालङ्कार द्वारा वर्णन किया गया . 1 . इह च तपोऽभिधानात् तद्ग्रहणेऽपि स्वाध्यायोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनाऽभिधानमिति। 350] दशवकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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