________________ ट तात्पर्य है कि, श्री जिन वचनानुसार पुद्गल व्यवस्था को ठीक-ठीक जान कर पुद्गलों के पर्यायों के विषय में द्वेष नहीं करना चाहिए। . उत्थानिका- अब फिर इसी विषय को स्पष्ट किया जाता है: पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा। विणीअतिण्हो विहरे, सीईभूएण अप्पणा॥६०॥ पुद्गलानां परिणामं, तेषां ज्ञात्वा यथा तथा। विनीततृष्णो विहरेत्, शीतीभूतेन आत्मना॥६०॥ पदार्थान्वयः-तेसिं-उन परिवर्तन शील पोग्गलाणं-पुद्गलों के परिणाम-परिणाम को जहा तहा-यथावत् जैसा है वैसा नच्चा-जानकार विणीअतिण्हो-तृष्णा से रहित एवं सीईभूएण अप्पणा-प्रशान्तात्मा हो कर साधु विहरे-विचरण करे। मूलार्थ-निर्वाण पद प्राप्ति के लिए कठोर श्रम करने वाला तत्त्वज्ञ मुनि, पुद्गलों के परिणाम को यथास्थित जान कर, तृष्णा के जाल से सर्वथा मुक्त हो कर, क्षमा रूप अमृत जल से आत्मा को शीतीभूत बनाकर, सर्वदा स्वतंत्र रूप से विचरण करे। टीका-जिसकी आत्मा क्रोधादि विकारों से सर्वदा शुद्ध प्रशान्त हो गई है और जो तृष्णा राक्षसी के जाल में से बाहर निकल गया है, ऐसे मोक्ष नगर का अनथक पथिक साधु, पुद्गलों के परिणाम को जो प्रतिक्षण शुभ से अशुभ और अशुभ से शुभ होते रहते हैं, गुरुपदेश से, शास्त्राध्ययन से एवं प्रत्यक्ष निरीक्षण से भली भाँति जानकर, शब्दादि विषयों में समभाव रखता हुआ सर्वथा शान्तचित्त हो कर महीमण्डल में विचरण करे / कारण यह है पुद्गलों के परिणाम को शान्तियुक्त आत्मा वाले ही मुनि (महात्मा) देख सकते हैं और जिनकी आत्माएँ विकल हैं 'शान्त नहीं हुई हैं, वे किस प्रकार पदार्थों के परिणाम का यथार्थ ज्ञान कर सकते हैं;' क्योंकि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सूक्ष्म एवं गंभीर विचारणा से होता है और वह विचारणा शान्ति से हो सकती है तथा जो तृष्णा से रहित हैं वे ही शान्त रूप हो सकते हैं। क्योंकि संसार में यह एक तृष्णा ही अशान्ति को बढ़ाने वाली है। - उत्थानिका- अब सूत्रकार, जिन शुद्ध भावों से संयम लिया जाए, उन्हीं शुद्ध भावों से उसे पालना चाहिए; इस विषय में कहते हैं: जाइ सद्धाइ निक्खंतो, परिआयट्ठाणमुत्तमं / तमेव अणुपालिजा, गुणे आयरिअसंमए॥१॥ यया श्रद्धया निष्क्रान्तः, पर्यायस्थानमुत्तमम् / तामेवोऽनुपालयेत् , गुणेषु आचार्यसम्मतेषु॥६१॥ पदार्थान्वयः-जाइ-जिस सद्धाइ-श्रद्धा से निक्खंतो-संसार से निकला है और उत्तम अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [349