________________ पदार्थान्वयः- तं-शृङ्गार रस प्रसिद्ध इत्थीणं-स्त्रियों के अंगपच्चंगसंठाणं-अंग / तथा प्रत्यंगों के संस्थान को तथा चारुल्लविअपेहिअं-मनोहर बोलने को एवं मनोहर देखने को न निज्झाए-ब्रह्मचारी कदापि न देखे; क्योंकि, ये सब कामराग-विवड्डणं-काम राग के बढ़ाने वाले हैं। मूलार्थ-ब्रह्मचारी पुरुष को कदापि स्त्रियों के अङ्ग-प्रत्यङ्गों के संस्थान, चारुभाषण और मनोहर कटाक्ष आदि को नहीं देखना चाहिए। क्योंकि ये सब कामराग के बढ़ाने वाले और ब्रह्मचर्य का नाश करने वाले हैं। ___टीका- इस सूत्र में वे बातें बतलाई गई हैं, जिन से काम-राग की वृद्धि होती है और ब्रह्मचर्य भंग होता है। यथा-ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्रियों के अंग- सिर आदि, प्रत्यंग- नेत्र आदि, संस्थान- शारीरिक संगठन सम्बन्धी सौन्दर्य आदि तथा स्त्रियों का मनोहर बोलना एवं कटाक्षपूर्वक मनोहर देखना ये शारीरिक चेष्टाएँ कदापि नहीं देखनी चाहिए। क्योंकि, ये सब बातें कामराग को बढ़ाने वाली हैं। इन से शान्त हुई मैथुन की अभिलाषा तीव्र हो उठती है और शान्त '. मन भी चंचल हो कर विक्षुब्ध हो जाता है। मन में क्षुब्धता के आते ही ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचर्य के साथ संयम सर्वथा नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। यद्यपि स्त्रियों के देखने का निषेध पहले किया जा चुका है तथापि यह बहुत भयंकर है। इसका विशेष रूप से परित्याग करना उचित है। अतएव इसकी प्रधानता ख्यापन के लिए यह फिर निषेधात्मक उपदेश दिया गया है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, विषय भोगों से स्नेह नहीं करने का उपदेश देते हैं:विसएसु मणुनेसु, पेमं नाभिनिवेसए। अणिच्चं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण उ॥५९॥ विषयेषु मनोज्ञेषु, प्रेम नाभिनिवेशयेत्। अनित्यं तेषां विज्ञाय, परिणामं पुद्गलानां तु॥५९॥ पदार्थान्वयः- तेसिं-उन पुग्गलाण-पुद्गलों के परिणाम-परिणाम की अणिच्चंअनित्यता विनाय-जान कर मणुन्नेसु-मनोज्ञ विसएसु-विषयों में पेमं-राग भाव को नाभिनिवेसएस्थापन न करे उ-'तु' शब्द वितर्क अर्थ में व्यवहृत है। मूलार्थ-विचारवान् साधु पुद्गलों के परिणाम को अनित्य जान कर मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषयों में कदापि राग भाव न करे। टीका- इस गाथा में भी ब्रह्मचर्य का वर्णन किया गया है। यथा-पुद्गलों के परिणाम को ठीक तौर से समझ कर जो प्रिय वा अप्रिय शब्द रूपादि के विषय हैं, उन के प्रति साधु को राग द्वेष नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि, प्रत्येक पुद्गल की अवस्था अनित्य है अर्थात् प्रत्येक वस्तुओं में क्षण-क्षण में पूर्व पर्याय का नाश और उत्तर पर्याय की उत्पति रहती है। इसी कारण पुद्गलों की प्रत्येक क्षण में मनोज्ञ से अमनोज्ञ और अमनोज्ञ से मनोज्ञ अवस्था होती हुई प्रत्यक्ष देखने में आती है और पदार्थों का पर्याय जब क्षण भर भी स्थायी रूप में नहीं रह सकता, तो फिर उन में राग-भाव और द्वेष भाव कैसे किया जा सकता है ? 'विज्ञाय' शब्द का यह 348] दशवकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्