________________ जिसका शरीर अनेकानेक रोगों से पीड़ित है, ऐसी विकृत शरीर वाली स्त्री का भी संसर्ग न करे। कारण यह है कि, मन अतीव चंचल है। न मालूम कब यह कारण पा कर संयम की सीमा से बाहर हो जाए? इसीलिए, इसको जितना वश में रखा जाएगा, उतना ही ठीक रहेगा। स्वल्प भी प्रमाद करने से चिरकाल संचित तपस्या को समूल नाश कर देता है। इस विकृत शरीर वाली स्त्री के संसर्ग का निषेध करके सूत्रकार ने यह सिद्ध किया है कि, जब ऐसी स्त्री भी ब्रह्मचर्य को भग्न करने वाली हो सकती है। तो फिर युवती (स्त्री) का तो कहना ही क्या, वह तो साक्षात् ही ब्रह्मचर्य की घातिका राक्षसी है। उसका संपर्क तो ब्रह्मचारी साधु को किसी प्रकार से भी उचित नहीं है। जिस प्रकार धनी पुरुष चोरों से अपने धन की रक्षा करता है और रक्षा के लिए अनेक प्रकार के उपाय सोचता रहता है, ठीक इसी प्रकार ब्रह्मचारी को भी योग्य है कि, वह ब्रह्मचर्य रूपी अपने महाधन की रक्षा करे और उसकी रक्षा के लिए मनो-निग्रह आदि अनेक प्रकार के सदुपायों की अन्वेषणा करता रहे। उत्थानिका- अब फिर सूत्रकार ब्रह्मचर्य के घातक कारणों का उल्लेख करते हैं:विभूसा इत्थीसंसग्गो, पणीअंरसभोअणं। नरस्सत्तगवेसिस्स , विसंतालउडं जहा॥५७॥ विभूषा ,स्त्रीसंसर्गः, प्रणीतरसभोजनम् / नरस्यात्मगवेषिणः ', विषं तालपुटं यथा॥५७॥ पदार्थान्वयः- अत्तगवेसिस्स-आत्म शोधक नरस्स-मनुष्य को विभूसा-शरीर की शोभा इत्थीसंसग्गो-स्त्री का संसर्ग तथा पणीअंरसभोअणं-स्निग्ध रस का भोजन, ये सब तालउडं विसं जहा-तालपुट नाम के विष के समान हैं। मूलार्थ-आत्मशोधक मनुष्य के लिए शरीर की विभूषा, स्त्री का संसर्ग और पौष्टिक सरस भोजन तालपुट नामक भयंकर विष के समान हैं। .. टीका- इस गाथा में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए शिक्षा दी गई है। जो ब्रह्मचारी आत्म-गवेषी है अर्थात् आत्म हित की इच्छा करने वाला है, उसके लिए वस्त्रादि द्वारा शरीर की विभूषा करना, येन केन प्रकारेण स्त्रियों का संसर्ग करना और बल वर्द्धक स्निग्ध रस के भोजन का आहार करना, ये सब तालपुट विष के समान हैं। क्योंकि, जिस प्रकार 'तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहितम्' ताल मात्र विष व्यापत्ति का कारण होता है, उसी प्रकार उपर्युक्त बातें भी ब्रह्मचर्य के नाश के लिए कारण बन जाती हैं। - उत्थानिका- अब सूत्रकार, स्त्री के अंग प्रत्यंग के देखने का निषेध करते हैं:अंगपच्चंगसंठाणं , चारूल्लविअपेहिअं / इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवड्ढणं // 58 // अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानं , चारुलपित-प्रेक्षितम् / स्त्रीणां तत् न निध्यायेत्, कामरागविवर्द्धनम् // 58 // अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [347