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________________ सुअलंकिअं-वस्त्र आभूषण भूषित नारिं-प्रत्यक्ष स्त्री को न निज्झाए-साधु कभी नहीं देखे; यदि . कभी स्वतः सहसा ही स्त्री देखने में आ जाए तो भक्खरंपिव-सूर्य के समान दट्ठणं-देख कर शीघ्र ही दिढ़ि-अपनी दृष्टि को पडिसमाहरे-पीछे हटा ले। मूलार्थ-चाहे कोई स्त्री, वस्त्राभूषण से विभूषित हो या फटे पुराने मैले कुचैले वस्त्रों से युक्त हो, किसी भी रूप में हो उसको कभी नहीं देखे और दीवार पर चित्रित स्त्री के निर्जीव चित्र (तसवीर) भी न देखे। यदि कोई स्त्री स्वतः ही देखने में आ जाए तो देखते ही अपनी दृष्टि को शीघ्र ही वापिस इस तरह हटा ले जैसे लोग मध्याह्न काल में सूर्य को देखकर हटा लेते हैं। __टीका-इस गाथा में भी उक्त विषय का समर्थन किया गया है। यथा- साधुओं को चाहिए कि जो दीवार स्त्रियों के चित्रों से चित्रित हो, उन्हें वे न देखें। इस प्रकार के देखने से स्वाध्याय आदि पवित्र क्रियाओं में विघ्न पड़ता है तथा जो स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्रों से तथा चमकीले आभूषणों से भली भाँति समलंकृत हों, उन्हें भी न देखें। उनके देखने से काम राग के उत्पन्न होने की संभावना है। यह अलंकृत' शब्द उपलक्षण है। अतः इससे अनलंकृत स्त्रियों के देखने का निषेध भी साथ ही हो जाता है। यदि किसी समय स्वतः ही कोई स्त्री देखने में आ जाए, तो जिस प्रकार लोग मध्याह्न काल में सूर्य को देखकर शीघ्र ही दृष्टि हटा लेते हैं, उसी प्रकार स्त्री को देखकर भी शीघ्र ही अपनी दृष्टि हटा लेनी चाहिए। क्योंकि, सूर्य को बार-बार देखते रहने से जैसे दृष्टि निर्बल हो जाती है, ठीक इसी भाँति स्त्री को भी बार-बार सतृष्ण नेत्रों द्वारा देखने से मानसिक दृढ़ता निर्बल हो जाती है। यह कथन सभी ब्रह्मचर्यव्रत धारी व्यक्तियों के लिए है, अतः सूत्रोक्त ब्रह्मचारी की तरह ही ब्रह्मचारिणी भी पुरुषों को न देखे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, वृद्धा स्त्री को देखने का भी निषेध करते हैं: हत्थपायपलिच्छिन्नं , कन्ननासविगप्पि। अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवजए॥५६॥ हस्तपादप्रतिछिन्नां , कर्णनासाविकृताम् / अपि वर्षशतिकां नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत्॥५६॥ . पदार्थान्वयः- बंभयारी-ब्रह्मचारी साधु हत्थपायपलिच्छिन्नं-जिसके हस्त, पाद छेदन किए हुए हैं तथा कन्ननासविगप्पिअं-जिसके कान, नाक काटे गए हैं तथा जो वाससयं अवि-सौ वर्ष की आयु वाली पूर्ण वृद्धा हो ऐसी नारिं-स्त्री के संसर्ग को भी विवज्जए-वर्ज दे। मूलार्थ-जिसके हाथ, पैर एवं कान, नाक कटे हुए हैं तथा जो पूर्ण सौ वर्ष की वृद्धा है-ऐसी विकृताङ्ग स्त्री के संसर्ग का भी ब्रह्मचारी साधु, विशेष रूप से परित्याग करे। टीका- इस गाथा में भी ब्रह्मचर्य का ही वर्णन किया गया है। ब्रह्मचारी साधु को . योग्य है कि, वह जिस स्त्री के हाथ और पैर छेदन किए हुए हैं तथा जिसके कान और नाक भी विकृत हैं (कटे हुए हैं)। इतना ही नहीं, किन्तु जो सौ वर्ष की अवस्था वाली वृद्धा भी है और 346] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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