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________________ के साथ परिचय नहीं करना, तो फिर किन के साथ परिचय करना चाहिए, इसका सूत्रकार उत्तर देते हैं कि केवल साधुओं के साथ ही संस्तव (परिचय) करना चाहिए; इस से ज्ञान, दर्शन और . चारित्र गुणों की विशेष प्राप्ति होती है। 'संसर्गजा दोषगुणाः भवन्ति' के नीति वाक्य से मनुष्य जैसा संसर्ग करेगा वैसा होकर ही रहता है। ___उत्थानिका- अब सूत्रकार, ब्रह्मचर्य की रक्षा का सदुपदेश देते हैं:जहा कुक्कुडपोअस्स, निच्चं कुललओ भयं। एवं क्खुबंभयारिस्स, इत्थी विग्गहओ भयं // 54 // यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं कुललतः भयम्। एवं खलु ब्रह्मचारिणः, स्त्रीविग्रहतः भयम्॥५४॥ पदार्थान्वयः- जहा-जिस प्रकार कुक्कुडपोअस्स-मुर्गे के बच्चे को निच्चं-हमेशा कुललओ-मार्जार से भयं-भय रहता है। एवंक्खु-इसी प्रकार बंभयारिस्स- ब्रह्मचारी पुरुष को इत्थी विग्गहओ-स्त्री के शरीर से भयं-भय है। - मूलार्थ-जिस प्रकार मुर्गे के बच्चे को बिलाव से भय रहता है, इसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्री के शरीर से भय बना रहता है। अतः साधुको स्त्रियों से अणुमात्र भी संपर्क नहीं रखना चाहिए। टीका-जिस प्रकार मुर्गे का बच्चा विलाव से सदैव भय मानता रहता है, ठीक उसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष को भी स्त्री के शरीर से भय मानते रहना चाहिए। कारण यह है कि, कुक्कुट के बच्चे को मार्जार सुखदाई न होकर उसका घातक होता है, ठीक इसी प्रकार स्त्री का शरीर भी ब्रह्मचारी को सुखदाई न होकर उसके ब्रह्मचर्य का घातक होता है। यहाँ प्रश्न होता है कि, 'स्त्री के शरीर से भय है' इसके स्थान पर 'स्त्री से भय है' इस शब्द को क्यों नहीं कहा? उत्तर में कहा जाता है कि, शरीर के ग्रहण से शास्त्रकार का यह आशय है, कि ब्रह्मचारी को स्त्री के चेष्टा शून्य मृत शरीर से भी भय मानना चाहिए। क्योंकि, स्त्री का मृत शरीर भी ब्रह्मचर्य के शान्त समुद्र को क्षुब्ध बनाने में कारण बन जाता है। सूत्रकार ने साधु पुरुषों की मुख्यता से यह उपलक्षणरूप सूत्र प्रतिपादित किया है। अतः जिस प्रकार ब्रह्मचारी के विषय में वर्णन किया है, ठीक इसी प्रकार ब्रह्मचारिणी के विषय में भी जानना चाहिए अर्थात् जैसे ब्रह्मचारी स्त्री के शरीर से भय रखता है, इसी तरह ब्रह्मचारिणी को भी पुरुष के शरीर से भय रखना चाहिए। __उत्थानिका-अब सूत्रकार, ब्रह्मचारी को स्त्री के चित्र देखने का निषेध करते हैं :चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअलंकि। भक्खरं पिव दट्टणं, दिद्धिं पड़िसमाहरे॥५५॥ . चित्रभित्तिं न निध्यायेत्, नारी वा स्वलंकृताम्। भास्करमिव दृष्ट्वा, दृष्टिं प्रतिसमाहरेत्॥५५॥ पदार्थान्वयः- चित्तभित्तिं-दीवार पर चिते हुए स्त्री के चित्र को वा-अथवा अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [345
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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