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________________ रूप से जानता है। दृष्टिवाद के कहने से यह भाव है जो प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्ण विकार और लकार आदि सभी व्याकरण के अङ्गों को भलीभाँति जानता है। - उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'साधु को मंत्र-तंत्रादि करने योग्य नहीं हैं' यह कहते हैं: नक्खत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतभेसजं। गिहिणो तं न आइक्खे, भूआहिगरणं पयं॥५१॥ नक्षत्रं स्वप्नं योगं, निमित्तं मंत्रभेषजम्। गृहिणः तत् न आचक्षीत, भूताधिकरणं पदम्॥५१॥ पदार्थान्वयः-साधु नक्खत्तं-नक्षत्र सुमिण-स्वप्न जोगं-वशीकरण आदि योग निमित्तंनिमित्त विद्या मंतभेसजं-मंत्र और औषधि आदि तं-प्रसिद्ध अयोग्य बातें गिहिणो-गृहस्थ को न आइक्खे-न बतलाए क्योंकि ये भूआहिगरणंपयं-प्राणियों के अधिकरण के स्थान हैं। मूलार्थ-भवितात्मा साधु को नक्षत्र, स्वप्न, योग, निमित्त, मंत्र और औषधि आदि की अयोग्य प्ररूपणा गृहस्थों के प्रति नहीं करनी चाहिए क्योंकि इनकी प्ररूपणा करने से षट् कायिक जीवों की हिंसा होती है। टीका- इस गाथा में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, साधु को नक्षत्र विद्या, स्वप्नों का शुभाशुभ फल बतलाने वाली स्वप्न विद्या, वशीकरण आदि योग विद्या, अतीतादि फल सूचिका निमित्त विद्या,वृश्चिकादि विषहारिका मंत्र विद्या, अतिसार आदि रोगनिवारिका औषधि विद्या इत्यादि विद्याएँ असंयतों-गृहस्थों के प्रति कभी नहीं कहनी चाहिए। इस सावध वचनों का उपदेश करने से प्राणी, भूत, जीव, सत्वों का नाश अथवा उन को संताप होता है। यदि कोई गृहस्थ साग्रह पूछे भी, तो उसे कह देना चाहिए कि, 'अनधिकारोत्रतपस्विनामिति' साधुओं को इन बातों के कहने का अधिकार नहीं है, ये सब सावद्य स्थान हैं। अतः आप मुझे अपना काम करने दें। उत्थानिका- अब सूत्रकार, साधु के ठहरने योग्य स्थान का उल्लेख करते हैं:अन्नटुं पगडं लयणं, भइज्ज सयणासणं। उच्चारभूमिसंपन्नं , इत्थीपसुविवजि॥५२॥ अन्यार्थं प्रकृतं लयनं, भजेत शयनासनम् / उच्चारभूमिसंपन्नं , स्त्रीपशुविवर्जितम् // 52 // पदार्थान्वयः- अन्नद्रु-अन्य के वास्ते पगडं-बनाए हुए उच्चारभूमिसंपन्न-उच्चार भूमि युक्त तथा इत्थीपसुविवज्जिअं-स्त्री और पशुओं से रहित लयणं-स्थान का तथा इसी प्रकार अन्यार्थ निर्मित सयणासणं-शय्या और आसन आदि का भइज-सेवन करे। मूलार्थ-साधु को उसी मकान में ठहरना चाहिए जो गृहस्थ ने अपने लिए बनाया हो अर्थात् जो साधु के वास्ते न बनाया गया हो, जो उच्चार प्रस्त्रवण भूमि वाला अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [343
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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