________________ को भाषण करनी चाहिए। कारण यह है कि, सर्वदा शुद्ध भाषा केबोलने से ही अपनी आत्म-समाधि और अन्य श्रोता व्यक्तियों को महान् ज्ञान रूपलाभ की प्राप्ति होती है। ___उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'यदि कभी कोई विद्वान् मुनि वचनस्खलित हो जाए, तो उसकी हँसी नहीं करनी चाहिए' यह कहते हैं: आयारपन्नत्तिधरं ,दिद्विवायमहिज्जगं / वायविक्खलिअंनच्चा,न तं उवहसे मुणी॥५०॥ आचार-प्रज्ञप्ति-धरं ,दृष्टिवादमधीयानम् / वाग्विस्खलितं ज्ञात्वा,न तमुपहसेत् मुनिः॥५०॥ ___ पदार्थान्वयः- मुणी-साधुआयारपन्नत्तिधर-आचार और प्रज्ञप्ति के धारण करने वाले एवं दिट्ठिवायमहिजगं-दृष्टिवाद के पढ़ने वाले साधु को वायविक्खलिअं-वचन से स्खलित हुआ नच्चा-' जानकर तं-उसका न उवहसे-उपहास न करे। मूलार्थ-आचार-प्रज्ञप्ति के धारक एवं दृष्टिवाद के पढ़ने वाले बहुश्रुत मुनि भी, यदि कभी बोलतेसमय प्रमादवशवचन से स्खलित हो जाएँऔर अशुद्ध शब्द का प्रयोग करेंतो साधु को उन महापुरुषों का उपहास नहीं करना चाहिए। टीका- जो साधु, आचार-प्रज्ञप्ति को धारण करने वाले हैं और दृष्टिवाद के पढ़ने वाले हैं; यदि वे भी किसी समय बोलते हुए प्रमादवश शुद्ध वचन से स्खलित हो कर अशुद्ध वंचन का प्रयोग कर बैठे अर्थात् लिङ्ग आदि से प्रतिकूल कुछ कह बैठे तो उनका उपहास नहीं करना चाहिए। जैसे कि, लो.भाई, यह बहुश्रुत कहाने वालों का वचन-कौशल देख लो।आश्चर्य है, ये कैसे आचार-प्रज्ञप्ति के धर्ता एवं दृष्टि-वाद के अध्येता हैं, जो इस प्रकार के महान् अशुद्ध शब्दों का प्रयोग करते हैं, ऐसे अशुद्ध शब्द तो साधारण पढ़ा लिखा भी नहीं बोलता इत्यादि। उपहास नहीं करने का कारण यह है- छद्मस्थ के पीछे भूल लगी हुई है। छद्मस्थ मनुष्य, भूल न करने की पूरी-पूरी सावधानी रखता हुआ भी भूल के चक्कर में आ जाता है। भूल की सत्ता का लोप तो सर्वज्ञ बन जाने पर ही होता है। अतएव भूल से बोले हुए शब्दों को पकड़वक्ता को अवर्ण वाद नहीं बोलना चाहिए। प्रतिष्ठित वक्ताओं की मामूली-सी बात को पकड़कर उपहास करना असभ्यता की चरम सीमा है। इससे बढ़कर कोई असभ्यता नहीं हो सकती है। ऐसा करने वाले समझते तो यह हैं कि, इससे हमारी विद्वत्ता की प्रशंसा होगी; परन्तु इस समझ से सर्वथा विपरीत काम होता है। निन्दा करने वाला ही स्वयं निन्दा का पात्र बन जाता है। ऊपर के वक्तव्य से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि, चलो छद्मस्थ तो हैं ही, भूल भी अनिवार्य है इस लिए यदि अशुद्ध बोला जाए तो, क्या दोष है ? कौन शुद्ध भाषा-भाषी बनने का कष्ट उठाए ? प्रयत्न बड़ा है। बल्कि शुद्ध बोलने का सदा प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। सूत्र में आए हुए आचार प्रज्ञप्ति' और 'दृष्टिवाद' से क्रमानुसार यह अभिप्राय है- आचारधर उसे कहते हैं जो स्त्रीलिङ्ग, पुलिङ्ग आदि का ज्ञान रखता है। प्रज्ञप्तिधर उसे कहते हैं जो स्त्रीलिङ्ग आदि के विशेषणों को भी विशेष. १'इह च दृष्टिवादमधीयानमित्युक्तमत इदं गम्यते- नाधीतदृष्टिवादम्।' तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतः स्खलनासंभवात् , इति टीका। 342] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्