________________ पदार्थान्वयः-जेण-जिस भाषा के बोलने से अप्पत्ति-अप्रीति सिआ-होती हो वा-अथवा परो-सुनने वाला दूसरा व्यक्ति आसु-शीघ्र ही कुप्पिज-कुपित होता हो तं-ऐसी अहिअगामिणिं-अहित करने वाली भासं-भाषा को संव्वसो-सभी प्रकार से सभी अवस्थाओं में न भासिज्जा-भाषण न करे। , मूलार्थ-जिस भाषा के बोलने से अपनी अप्रीति होती हो एवं दूसरा कोई सुन कर शीघ्र ही क्रुद्ध होता हो; ऐसी उभय लोक विरूद्ध अहितकारिणी भाषा का भाषण सभी प्रकार से परित्याज्य है। . टीका-जिस भाषा के बोलने से अपनी तथा अपने धर्म की अप्रीति होती है तथा जिस भाषा के बोलने से दूसरा कोई सुनने वाला व्यक्ति शीघ्र ही क्रोध में आता है तथा जो भाषा दोनों लोकों में अहित करने वाली हो; ऐसी दुष्ट एवं कठोर भाषा को सभी स्थानों में सभी प्रकार से साधु को कदापि भाषण नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि, भाषा समिति के ठीक न रहने से क्लेश की वृद्धि होती है और आत्मिक शुद्धता का नाश होकर आत्मा महामलिन हो जाती है। सूत्र में जो 'यया' स्त्रीलिङ्ग के स्थान में जेण"येन' यह पुलिङ्ग का प्रयोग किया है, वह प्राकृत भाषा के कारण से है तथा यह आर्ष प्रयोग भी है। आर्ष प्रयोग, लिङ्ग-बंधन के पूर्ण रूप से बंधे हुए नहीं होते हैं। . उत्थानिका- अब सूत्रकार, साधु को कैसी भाषा बोलनी चाहिए यह उपदेश करते हैं:दिटुं मिअं असंदिद्धं, पड़िपुन्नं विअं जि। अयंपिरमणुव्विग्गं , भासं निसिर अत्तवं॥४९॥ दृष्टां मितामसंदिग्धां, प्रतिपूर्णा व्यक्तां जिताम्। अजल्पाकी मनुद्विग्नां, भाषां निसृजेत् आत्मवान्॥४९॥ ___ पदार्थान्वयः- अत्तवं-आत्मवान् साधु दिटुं-देखी हुई मिअं-परिमित असंदिद्धं'सन्देह रहित पड़िपुन्नं-प्रतिपूर्ण विअं-प्रकट जिअं-परिचित अयंपिरं-अजल्पनशील और अणुव्विग्गं-अनुद्विग्न भासं-भाषा को निसिर-भाषण करे। . मूलार्थ-आत्मोपयोगी साधु, वही भाषा बोले जो स्वयं के अनुभव में आई हुई हो। यों ही किसी चलते आदमी से सुनी सुनाई न हो, जो असंदिग्ध हो अर्थात् जिस में किसी प्रकार की शङ्का न हो, जो प्रति पूर्ण हो अधूरी ( उपक्रम उपसंहार से रहित)न हो, वह अच्छी प्रकार स्पष्ट हो गुनगुनात्मक न हो तथा जो परिचित, अजल्पनशील, अनुद्विग्न एवं परिमित हो। टीका-आत्मवान् विचार शील साधु को योग्य है-वह वही भाषा बोले जिसे स्वयं उसने भली-भाँति देख व समझ लिया हो; जो स्वरूप और प्रयोजन से परिमित हो; जो श्रोताओं के अन्तःकरण में सन्देह उत्पन्न करने वाली न हो; जो व्यञ्जन और स्वरादि से प्रति-पूर्ण हो, जो व्यक्त हो-'मुम्मुण' वचनात्मक न हो; जो सर्व प्रकार से परिचित हो; जो अति ऊँची-नीची न हो और जो किसी प्राणी को उद्वेग करने वाली न हो। ऊपर बतलाई हुई समयोचित भाषा ही मुनि अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [341