________________ पास में शिष्य को नहीं बैठना चाहिए; किन्तु यथायोग्य सभ्यता पूर्वक ही बैठना चाहिए। __उत्थानिका- अब, सूत्रकार, काय-प्रणिधि के पश्चात् वचन-प्रणिधि के विषय में कहते हैं: अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा। पिट्टिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जए॥४७॥ अपृष्टो न भाषेत, भाषमाणस्यान्तरा / पृष्ठमांसं न खादेत् , मायामृषां विवर्जयेत्॥४७॥ पदार्थान्वयः-आज्ञाकारी शिष्य अपुच्छिओ-गुरु श्री के बिना पूछे तथा भासमाणस्सगुरु श्री के बात करते हुए अंतरा-बीच में नभासिज्जा-न बोले तथा पिट्ठिमंसं-पिशुनता भी नखाइज्जा-न करे और मायामोसं-कपट तथा असत्य को भी विवज्जए-वर्ज दे। ... ___ मूलार्थ-सच्चा आज्ञाकारी शिष्य वही होता है, जो गुरु श्री के बिना पूछे नहीं बोलता, जो गुरु श्री के बात करते हुए बीच-बीच में अपना वार्तालाप नहीं छेड़ता, जो पीठ पीछे चुगली नहीं करता और जो कपट तथा असत्य का अल्प भी आश्रय नहीं लेता। टीका- इस गाथा में वचन-प्रणिधि-विषयक वर्णन किया गया है। जैसे- शिष्य को अकारण-बिना गुरु श्री के बुलाए नहीं बोलना चाहिए और साथ ही जब गुरु श्री किसी से वार्तालाप कर रहे हों, तब बीच में भी नहीं बोलना चाहिए इससे अविनय का दोष लगता है, जिसके कारण जीव को नीच योनियों में चिरकाल तक परिभ्रमण करना पड़ता है। इतना ही नहीं, किन्तु पीठ पीछे किसी की निन्दा बुराई भी नहीं करनी चाहिए और छल तथा असत्य का भी सदा परित्याग कर देना चाहिए। क्योंकि, इन पिशुनता, छल, असत्य आदि दोषों से आत्मा अत्यन्त मलिन हो जाती है। जिसके कारण सद्गति का प्राप्त होना असम्भव हो जाता है। सूत्र में आया हुआ 'पिट्टिमंसं न खाइज्जा' पद अतीव गम्भीर है। इस का व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ होता है'पीठ का मांस न खाना चाहिए।' यह अर्थ यहाँ नहीं बैठता: क्योंकि भाषा के प्रकरण में भला मांस का क्या प्रयोजन? अतः इस का तात्पयार्थ यह है- 'साधु को परोक्ष-दोष-कीर्तन नहीं करना चाहिए' अर्थात् परोक्ष में (पीठ पीछे) किसी का अवर्ण वाद (चुगली) नहीं करना चाहिए। परोक्ष में किसी की निन्दा करना पीठ का मांस खाने जैसा है। पिशुनता के स्थान में इस द्रव्यतः कठोर एवं भावतः कोमल 'पृष्ठमांस' शब्द का प्रयोग किया है। . उत्थानिका- अब सूत्रकार, अहित-कारिणी भाषा के बोलने का निषेध करते हैं:अप्पत्तिअंजेण सिआ, आसकप्पिज्ज वा परो। सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहिअगामिणिं॥४८॥ अप्रीतिर्यय स्यात्, आशु कुप्येत् वा परः। सर्वशः तां न भाषेत्, भाषामहितगामिनीम् // 48 // . 340] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्