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________________ मू हस्तं पादं च कायं च, प्रणिधाय जितेन्द्रियः। आलीनगुप्तः निषीदेत्, सकाशे गुरोः मुनिः॥४५॥ पदार्थान्वयः-जिइंदिए-जितेन्द्रिय मुणी-साधु हत्थं-अपने हाथ को च-तथा पायंअपने पैर को च-तथा कायं-अपने शरीर को पणिहाय-मर्यादित करके अल्लीणगुत्तो-उपयोग पूर्वक गुरुणो-गुरु श्री के सगासे-पास में निसिए-बैठे। मूलार्थ-जतेन्द्रिय साधु को गुरु श्री के पास में उपयोग पूर्वक अपने हाथ, पैर और शरीर को मर्यादित रूप में संकोच कर बैठना चाहिए। __ टीका- इस गाथा में गुरु श्री की पर्युपासन करने की विधि का विधान किया गया है। इन्द्रियों के जीतने वाले मुनि को योग्य है कि, वह अपने हाथ, पैर और शरीर को इस प्रकार संकोच कर गुरु श्री के पास बैठे; जिस से गुरु श्री की अविनय (अवहेलना) न हो सके तथा बैठते समय ईषल्लीन (उपयोग युक्त) होना चाहिए, जिससे प्रत्येक कार्य में सावधान, सचेत या सतर्क रहने की अवस्था या भाव हो सके। सूत्र में जो 'प्रणिधाय' शब्द आया है, उसका स्पष्ट अर्थ है कि साधु को गुरु श्री के समक्ष बैठते समय अपने हस्त, पदादि शारीरिक अवयवों को सङ्कोच कर पूर्ण सभ्यता से बैठना चाहिए। क्योंकि, असभ्यता से अड़कर बैठने में अपनी, गुरु श्री की और साथ ही जैन शासन की निन्दा होती है। उत्थानिका- अब, फिर इसी विषय में कहा जाता है:न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ। .. न य ऊरूं समासिज, चिट्ठिजा गुरुणंतिए॥४६॥ न पक्षतः न पुरतः, नैव कृत्यानां पृष्ठतः। .. न च ऊरुं समाश्रित्य, तिष्ठेत् गुर्वन्तिके॥४६॥ पदार्थान्वयः-किच्चाणं-आचार्यों के न पक्खओ-न पार्श्वभाग में तथा न पुरओन अग्रभाग में तथा नेव पिट्ठओ-ना ही पृष्ठ भाग में बैठे य-एवं गुरुणंतिए-गुरु श्री के समीप ऊरुसमासिज्ज-जांघ पर जांघ रख कर भी न चिट्ठिज्जा-न बैठे। . मूलार्थ-साधुको आचार्य प्रमुख गुरुजनों के समीप बराबर, आगे, पीठ पीछे तथा जांघ पर जांघ रखकर नहीं बैठना चाहिए। टीका- इस गाथा में शरीर से पर्युपासन करने का वर्णन किया गया है। साधु आचार्यों के बराबर न बैठे; इस प्रकार बैठने से अविनय का प्रदर्शन होता है तथा उन के अतीव आगे भी न बैठे; इस से अन्य वन्दना करने वालों को अन्तराय पड़ता है तथा पीठ पीछे भी न बैठे; इस तरह बैठने से गुरु श्री की कृपापूर्ण दृष्टि अपने ऊपर नहीं पड़ने पाती, जिससे शारीरिक चेष्ठादि के न देखने से अविनय भाव का प्रसंग आता है तथा सामने न होने पर शास्त्रों के अर्थों का निश्चय भी भली भाँति नहीं किया जा सकता। गुरु श्री जी के समीप जंघा पर जंघा रख कर नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि इससे गुरु श्री जी की अशासतना होने का दोष लगता है। भाव यह है कि, ये सब आसन अविनय भाव के सूचक हैं, अतएव इन आसनों से आचार्य वा गुरु के अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [339
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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