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________________ श्रमण धर्म में योग जोड़ना चाहिए। क्योंकि, बिना आत्मविश्वासी और उत्साही बने श्रमण धर्म / में तीन काल में योग नहीं जुड़ सकता है। ___उत्थानिका- अब सूत्रकार, ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरुजनों की सेवा करने का उपदेश देते हैं: इह लोगपारत्तहिअं, जेण गच्छई सुग्गइं। बहुस्सुअंपज्जुवासिज्जा, पुच्छिज्जत्थविणिच्छयं // 44 // इह लोके परत्र हितं, येन गच्छति सुगतिम्। बहुश्रुतं पर्युपासीत, पृच्छेत् अर्थविनिश्चयम्॥४४॥ पदार्थान्वयः-जेण-जिससे इहलोगपारत्तहिअं-इस लोक में और परलोक में हित होता है तथा सुग्गइं-सुगति की गच्छई-प्राप्ति होती है, ऐसे ज्ञान को प्राप्त करने के लिए साधु बहुस्सुअं-किसी बहुश्रुत मुनि की पज्जुवासिज्जा-पर्युपासना करे और पर्युपासना करता हुआ अत्थविणिच्छयं-अर्थ विनिश्चय की पुच्छिज्जा-पृच्छना करे। . मूलार्थ-जिसके द्वारा लोक परलोक दोनों में हित होता है तथा सद्गति की प्राप्ति होती है, ऐसे सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधु को शास्त्र विशारद बहुश्रुत मुनि की सेवा भक्ति करनी चाहिए और सेवा भक्ति करते हुए पदार्थ के यथार्थ निश्चय की पृच्छना करनी चाहिए। टीका- अकुशल प्रवृत्ति के निरोध से और कुशल प्रवृत्ति के अनुबंध से मनुष्य को दोनों लोकों में सुख-शान्ति की उपलब्धि होती है। जिससे कुशल और अकुशल प्रवृत्ति का ज्ञान होता है, जिससे लोक परलोक दोनों में हित होता है तथा जिससे सद्गति की प्राप्ति होती है अर्थात् परंपरा से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसे सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधु को विनम्र भाव से बहुश्रुत मुनियों की पर्युपासन (सेवा) करनी चाहिए और पर्युपासन करते हुए ही प्रश्न पूछ-पूछ कर पदार्थों का यथार्थ निश्चय करना चाहिए। इसमें मुख्य हेतु यही है कि, एक मात्र बहुश्रुत मुनियों की सेवा करने वाला ही जान सकता है कि, यह मार्ग कल्याण का है, यह मार्ग दुःख का है, यह कार्य अर्थकारी है और यह कार्य अनर्थकारी है। जो जिस विद्या का अधिपति होता है, वही जिज्ञासु को उस विद्या का यथार्थ ज्ञान करा सकता है। बहुश्रुत मुनि, अध्यात्म विद्या के अधिपति हैं, अतः वे मुमुक्षु को अध्यात्म-विद्या का यथातथ्य ज्ञान कराकर उसे संयम में ध्रुव (निश्चल) कर देते हैं। __ उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'गुरु के पास में हस्त पदादि को संकोच कर बैठना चाहिए' इस विषय में प्रतिपादन करते हैं: हत्थं पायं च कायं च पणिहाय जिइंदिए। अल्लीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी॥४५॥ . 338] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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