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________________ टीका-साधु को निद्रा का सत्कार नहीं करना चाहिए; जैसे-प्रकामशायी होना या जिस प्रकार निद्रा अधिक आए, ऐसा उपाय करना। और अत्यन्त हँसना भी नहीं चाहिए। क्योंकि, अत्यन्त हँसने से अविनय और अपनी असभ्यता प्रकट होती है, कर्मों का महान् बंधन .होता है तथा किसी समय उपहास द्वारा कलह भी उत्पन्न हो सकती है। साधु को किसी एकान्त स्थान में इकट्ठे हुए साधु-वर्ग में बैठ कर परस्पर विकथाओं द्वारा अमूल्य समय भी नष्ट नहीं करना चाहिए। क्योंकि, जो समय विकथा में जाता है, उसका सदुपयोग नहीं किया जा सकता है और विकथा के व्यसन में पड़ जाने के बाद मनुष्य सभी धर्म-कर्मों से भ्रष्ट हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि, जब साधु को ये काम वर्जित हैं, तो फिर क्या काम करना चाहिए, जिससे पाप भी न लगे और धर्म से भी भ्रष्ट न होना पड़े और समय भी भाररूप न होकर आनन्द पूर्वक व्यतीत हो जाए ? उत्तर में कहा जाता है कि, पढ़ना, पूछना, पर्यटना, अनुप्रेक्षा और धर्म कथा रूप स्वाध्याय तप में सदैव काल रत रहना चाहिए क्योंकि, स्वाध्याय से ज्ञानावर्णीय कर्म का क्षयोपशम और ज्ञान की प्राप्ति होती है और साथ ही समय भी आनन्द पूर्वक व्यतीत हो जाता है। उत्थानिका- अब, फिर आलस्य-परित्याग के विषय में ही कहते हैं:जोगं च समणधम्ममि, मुंजे अनलसो धुवं। जुत्तों असमणधम्ममि, अष्टुं लहइ अणुत्तरं॥४३॥ योगं च श्रमणधर्मे, युञ्जीत अनलसो ध्रुवम्। - युक्तश्च श्रमणधर्म, अर्थं लभते अनुत्तरम्॥४३॥ पदार्थान्वयः-धुवं-सदाकाल अनलसो-आलस्य से रहित होकर समणधम्मंमिश्रमण धर्म में जोगं च-तीनों योगों को जॅजे-जोड़े; क्योंकि जुत्तो अ-युक्त साधु अणुत्तरं-सब से बढ़कर अटुं-अर्थ को (मोक्ष को) लहइ-प्राप्त करता है। . मूलार्थ-साधु को स्वीकृत श्रमणधर्म में आलस्य का सर्वथा परित्याग करके योग-त्रय को जोड़ना चाहिए। क्योंकि, श्रमणधर्म में योंग-त्रय से युक्त साधु ही सर्व प्रधान अर्थ जो मोक्ष है, उसको प्राप्त करता है। टीका-इस गाथा में आज्ञा और फल के विषय में वर्णन किया गया है। श्री भगवान् उपदेश करते हैं-हे साधुओ! तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम अपने क्षमार्जवादि लक्षण श्रमण-धर्म में मन, वचन और काय रूप तीनों योग को जोड़ो। इस कार्य में तनिक भी आलस्य मत करो। कारण यह है कि, श्रमण धर्म में निश्चलता पूर्वक योग जोड़ने से साधु मोक्ष सुख की एवं सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि अर्थों की प्राप्ति कर लेता है। स्पष्टार्थ यह है - अनुप्रेक्षा काल में मनो-योग, अध्ययन काल में वचन-योग और प्रत्युपेक्षण काल में काय-योग, इस प्रकार तीनों योगों को श्रमण धर्म में जोड़ देना चाहिए; जिस के फल स्वरूप मोक्ष सुख की प्राप्ति सहज में हो जाती है। 'ध्रुव' कहने का शास्त्रकार का यह आशय है कि, साधु को आत्म विश्वासी होकर उत्साह पूर्व अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / / [337
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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