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________________ रात्निकेषु विनयं प्रयुञ्जीत, ध्रुवशीलतां सततं न हापयेत्। कूर्म इव आलीनप्रलीनगुप्तः, पराक्रमेत तपः संयमयोः॥४१॥ पदार्थान्वयः- रायणिएसु-रत्नाधिकों-आचार्यों के प्रति विणयं-विनय का पउंजेप्रयोग करे तथा सययं-निरन्तर ध्रुवसीलयं-ध्रुव शीलता का न हावइज्जा-हास न करे तथैव कुम्मुव्व-कूर्म के समान अल्लीणपलीणगुत्तो-अपने अङ्गोपाङ्गों की सम्यक्तया पापों से रक्षा करता हुआ तवसंजमंमि-तप संयम के विषय में परक्कमिज्जा-पराक्रम करे। मूलार्थ-मोक्षार्थी साधु को चिरदीक्षित एवं विद्यावृद्ध आचार्य प्रमुख की विनय भक्ति करनी चाहिए तथा शील सम्बन्धी दृढ़ता का कभी ह्रास नहीं करना चाहिए और कछुए के समान अपनी इन्द्रियों को गुप्त रखके तप संयम की क्रियाओं में बड़ी तत्परता से पराक्रम करना चाहिए। टीका- इस काव्य में रत्नाधिकों की विनय का और स्वीकृत सदाचारों में दृढ़ता का विधान किया गया है। जैसे-जो साधु अपने से दीक्षा में बड़ा है, उसकी सम्यक् तथा अभ्युत्थानादि रूप विनय करनी चाहिए तथा जो अष्टादश-सहस्र-शीलाङ्ग पालन रूप ध्रुव-शीलता (ब्रह्मचर्य) है उसकी कभी भी हानि नहीं करनी चाहिए। इतना ही नहीं, किन्तु कूर्म के समान अपने अङ्गोपाङ्गों को सम्यक्तया पाप क्रिया से गुप्त रखना चाहिए। जो तप प्रधान संयम है, उस में सदैव काल पराक्रम करना चाहिए। सारांश यह है कि,दीक्षा व ज्ञान आदि में बड़ों की विनय, अपने शील में दृढ़ता तथा तप-संयम में पुरुषार्थ, ये तीनों कृत्य साधु को अवश्यमेव करने चाहिए। क्योंकि, उपर्युक्त क्रियाओं के करने से पूर्ण आत्म-विशुद्धि होती है। उत्थानिका- अब सूत्रकार, निद्रा एवं हास्य परित्याग के विषय में कहते हैं :निदं च न बहुमन्निज्जा, सप्पहासं विवज्जए। .. मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायमि रओ सया॥४२॥ निद्रां च न बहु मन्येत, सपहासं विवर्जयेत्। मिथः कथासु न रमेत, स्वाध्याये रतः सदा॥४२॥ पदार्थान्वयः-साधु निइं-निद्रा को न बहुमन्निजा-बहुमान न दे च-तथा सप्पहासंअत्यन्त हास को विवजए-वर्ज दे, उसी प्रकार मिहो कहाहि-परस्पर की विकथा रूप वार्ताओं में न रमे-रमण न करे, किन्तु सया-सदा सज्झायंमि-स्वाध्याय के विषय में रओ-रत रहे। मूलार्थ-साधुको निद्रालु, प्रहास-प्रिय एवं परस्पर की विकथा रूप बातों में तल्लीनता रखने वाला नहीं होना चाहिए; अपितु सर्वदा महान् स्वाध्याय-तप के विषय में पूर्णतया रत रहना चाहिए। 336] दशवकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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