________________ . उत्थानिका- अब सूत्रकार, कषायजन्य पारलौकिक-कष्ट का वर्णन करते हैं:कोहो अ माणो अ अणिग्गहीआ, माया अलोभो अपवड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स॥४०॥ क्रोधश्च मानश्च अनिगृहीतौ, माया च लोभश्च प्रवर्द्धमानौ। चत्वार एते कृत्स्नाः कषायाः, सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य॥४०॥ पदार्थान्वयः-अणिग्गहीआ-वश में नहीं किए हुए कोहो-क्रोध अ-तथा माणोअमान पवड्डमाणा-बढ़े हुए माया-छल अ-और लोभो अ-लोभ एए-ये चत्तारि-चार कसिणाक्लिष्ट (कठोर) कसाया-कषाय पुणब्भवस्स-पुनर्जन्म रूपी संसार वृक्ष की मूलाई-जड़ों को सिंचंति-सींचते हैं। मूलार्थ-अनिगृहीत क्रोध और मान तथा प्रवर्द्धमान माया और लोभ, ये चारों ही क्लिष्ट-कषाय पुनर्जन्म रूप विषवृक्ष की जड़ों का सिंचन करने वाले हैं। टीका- इस काव्य में इस बात का प्रकाश किया गया है कि, पूर्वोक्त चारों ही दोष संसार-वृद्धि के कारण हैं। जैसे- वश में नहीं हुए क्रोध और मान तथा बढ़े हुए माया और लोभ, ये चारों ही कषाय-कृष्ण (काले) वा क्लिष्ट पुनर्जन्म रूपी विषवृक्ष के मूल का सिंचन करते हैं / अर्थात् अशुभ भावरूपी जल से तथाविध कर्म रूप का सिंचन करते हैं, जिससे जन्ममरण की विशेष वृद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि, जिस प्रकार ये चारों कषाय इस लोक में नाना प्रकार के बंधन, ताड़न एवं भर्त्सन आदि दुःखों के देने वाले हैं, ठीक इसी प्रकार परलोक में भी दुःखप्रद ही हैं / इस लिए सब से बड़ा धर्म-कृत्य यही है कि, इन चारों महादोषों को आत्मा से पृथक कर दिया जाए। जब तक ये पृथक नहीं होंगे, तब तक यह आत्मा मोक्ष मन्दिर में जाकर स्थायी सुख शान्ति से नहीं बैठ सकेगी। उत्थानिका-अब सूत्रकार, कषायों के निग्रह करने का ससाधन सदुपदेश देते हैं:रायणिएसु विणयं पउंजे, धुवसीलयं सययं न हावइज्जा। कुम्मुव्व अल्लीणपलीणगुत्तो, परक्कमिज्जा तव संजमंमि॥४१॥ अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [335