________________ अपने से भिन्न किसी और की पर्युपासना नहीं कर सकता, पर्युपासना तब करे जब कि वह किसी को अपने से बड़ा माने। माया, मैत्री-भाव को नाश करने वाली है; जब मनुष्य का छल प्रकट हो जाता है, तब फिर मित्र भी उसका विश्वास नहीं करते। वे भी उसे मायाचारी (धोखेबाज) जानकर छोड़ देते हैं। अब चौथा लोभ है। यह प्रीति, विनय और मैत्री आदि सब सद्गुणों का जड़ मूल से नाश करने वाला हैं। इसकी नीचता में कोई सीमा ही नहीं है। अतएव ये चारों महादोष, कल्याणाभिलाषी मनुष्य के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। कारण यह है कि, अनुमान से अनुमेय का ज्ञान होता है, जब ये चारों इस लोक में घोर कष्टों के देने वाले हैं, तो फिर परलोक में क्यों न अतीव घोर कष्टप्रद होंगे ? अपितु अवश्यमेव होंगे। उत्थानिका- अब, ये चारों दोष कैसे नष्ट किए जा सकते हैं, यह कथन करते हैं:उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं च अजवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे॥३९॥ उपाशमेन हन्यात् क्रोधं, मानं मार्दवेन जयेत्। . मायां च आर्जवभावेन, लोभं सन्तोषतः जयेत्॥३९॥ पदार्थान्वयः-कोहं-क्रोध को उवसमेण-शान्ति से हणे-हनन करना चाहिए माणंअहंकार को मद्दवया-मार्दव भाव से जिणे-जीतना चाहिए मायं-माया को अज्जवभावेण-सरल भाव से नष्ट करना चाहिए च-एवं लोभ-लोभ को संतोसओ-संतोष से जिणे-जीतना चाहिए। मूलार्थ-शान्ति से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता से माया को एवं सन्तोष से लोभ को जीत कर, समूल नष्ट करना चाहिए। टीका- इस गाथा में उक्त चारों दोषों के जीतने का मार्ग प्रतिपादन किया गया है। जैसे- शान्ति से क्रोध को जीतना चाहिए; क्योंकि, बैर से बैर पर जीत प्राप्त नहीं की जा सकती। जो वैर से बैर मिटाना चाहते हैं वे बड़ी भारी भूल करते हैं। बैर (विरोध) के मिटाने वाली एक अचूक शान्ति ही है, इसी से वास्तविक सुख मिल सकता है। मृदुभाव से अर्थात् सकोमल-वृत्ति के भावों से मान को जीतना चाहिए तथा पदार्थों की क्षण-क्षण में होने वाली अवस्थाओं का पुनः पुनः अनुप्रेक्षण करके मान को निर्मूल करना चाहिए। क्योंकि, जब किसी भी पदार्थ का कोई पौद्गलिक पर्याय एक-सा नित्य नहीं रहता है तो फिर मान किस प्रकार किया जाए। ऋजुभावों से माया का नाश करना चाहिए, जिसके भाव सदैव सरल बने रहते हैं, उसके अन्तः करण में फिर माया का निवास किसी प्रकार से भी नहीं हो सकता और सर्वनाश कारी लोभ शत्रु को संतोष के तीक्ष्ण शस्त्र से जीतना चाहिए; सन्तोष का और लोभ का तो सदैव दिन-रात जैसा वैर है। अतः हृदय में संतोष के विराजते ही लोभ इस प्रकार भाग जाता है, जैसे सूर्य के उदय होते ही अन्धकार भाग जाता है। सूत्रकार का भाव यह है- कल्याणकामी जीव को प्रथम तो इन कषायों के उदय होने के कोई कारण ही नहीं करने चाहिए। तथापि यदि कभी दैवयोग से इन के उदय होने के कारण बन ही आएँ तो उपर्युक्त उपायों का अवलंबन करके इनके उदय का निरोध और उदयप्राप्त को विफल कर देना चाहिए। 334] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्