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________________ कर्म विषयिक पूर्ण निष्ठा, शरीर को पूर्ण स्वस्थता, आर्य क्षेत्र आदि निर्विघ्न समय, जब ये पदार्थ प्राप्त हो जाए, तो फिर कैसा ही क्यों न कोई सांसारिक कारण हो, किसी प्रकार से भी धार्मिक कार्यों के करने में आलस्य नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि, ये पूर्वोक्त पदार्थ बार-बार प्रत्येक जीव को प्राप्त नहीं होते। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की ठीक ठीक योग्यता मिलने पर भी धर्म कृत्य नहीं करता, उससे बड़ा मूर्ख संसार में और कौन मिल सकता है? सूत्र में आया 'बल' शब्द सभी बलों का वाचक होता; किन्तु दूसरा 'स्थाम' शब्द, जो केवल शारीरिक बल के लिए दिया हुआ है; उससे 'बल' शब्द यहाँ सूत्र में केवल मानसिक और शारीरिक बल का ही वाचक रह जाता है। बृहद्वृत्ति में इस गाथा पर वृत्ति नहीं लिखी, किन्तु दीपिकाकार ने इस गाथा पर दीपिका टीका लिखी है। बालावबोधकारों ने तो प्रायः सभी ने इस पर अपना बालावबोध लिखा है। अतः हमने भी दीपिकाकार एवं बालावबोधकारों के मत को मान्य रख के इस वैराग्य पूर्ण परमोपयोगी गाथा को यहाँ सादर अङ्कित किया है। उत्थानिका-पुनरपि उपदेश देकर शिष्य वर्ग को सावधान किया जाता है :जरा जाव न पीड़ेई, बाही जाव न बढ़ई। जाविंदिआ न हायंति, ताव धम्मं समायरे॥३६॥ जरा यावन्न पीड़यति, व्याधिर्यावन्न वर्द्धते। ... यावदिन्द्रियाणि न हीयंते, तावद्धर्मं समाचरेत्॥३६॥ पदार्थान्वयः- जाव-जब तक जरा-वृद्धावस्था न पीड़ेई-पीड़ित नहीं करती है जाव-जब तक बाही-शरीर में व्याधि नवड्डई-नहीं बढ़ती है जाव-जब तक इंदिआ-इन्द्रियाँ हायंति-शक्ति हीन नहीं होती हैं ताव-तब तक भव्य पुरुष धम्म-धर्मका समायरे-समाचरण करे। मलार्थ-जब तक शरीर पर जरा राक्षसी का आक्रमण नहीं होता है, जब तक शरीर पर बलवान रोगों का इकद्रा (स्थिर पूर्वक) डेरा नहीं लगता है, जब तक शरीर की श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ शक्ति हीन होकर काम करने से निषेध नहीं करती हैं। तब तक शीघ्र ही सावधान होकर धर्म का आचरण करना चाहिए, नहीं तो फिर सिवाए पश्चाताप के और कुछ नहीं हो सकता। टीका- इस गाथा में भी पूर्ववत् उपदेश दिया गया है। यथा- श्री भगवान् उपदेश करते हैं। हे आर्य साधुओ ! जब तक वयोहानि रूप वृद्धावस्था तुम्हारे शरीर को पीड़ित कर जर्जर नहीं बनाती है और जब तक क्रिया सामर्थ्य के शत्रु रोग, शरीर में नहीं बढ़ पाते हैं और जब तक तुम्हारी पाँचों इन्द्रियाँ शक्ति-संपन्न हैं अर्थात् इन्द्रियों का बल हीन नहीं हुआ है तब तक तुम धर्म की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी सभी क्रियाओं में अपूर्व पुरुषार्थ को बड़े उत्साह के साथ कर सकते हो। यदि उक्त अङ्गों में किसी भी अंग की हानि हो गई, तो समझो फिर धर्म कार्य किसी भी प्रकार न कर सकोगे। संदीप्ते भुवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः।' अतः जब तक तुम्हारे पूर्वोक्त कार्य ठीक हैं, अर्थात् यह धर्म-साधन-भूत शरीर स्वस्थ एवं सुदृढ़ बना हुआ है; तब तक प्रारम्भ में सुख स्वरूप और अंत में दुःख स्वरूप तुच्छ विषय भोगों से उदासीन होकर धार्मिक क्रियाओं का आचरण करते रहो। कारण यह है कि, धार्मिक क्रियाओं के आचरण से अक्षय सुख की उपलब्धि होती है। 332] दशवकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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