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________________ टीका-इस गाथा में आत्मा की विशुद्धि का वर्णन किया गया है। यथा-जिस साधु की बद्धि पवित्र है. जिसके सदैव पवित्र भाव प्रकट रहते हैं. इतना ही नहीं, किन्तु जो अप्रतिबद्ध है और जितेन्द्रिय भी है। यदि कभी ऐसा मुनि भी किसी कर्म योग से आचरण न करने योग्य कुकृत्य सेवन कर ले, तो उस को भी योग्य है कि, वह आत्म विशुद्धि के लिए गुरु के पास उस पाप की आलोचना करे, जिससे किए हुए पाप की निवृत्ति हो जाए। किन्तु, आलोचना करते समय दोष को स्तोक मात्र कह कर गुप्त न करे तथा सर्वथा ही गुप्त न करे। अर्थात् जिस प्रकार दोष सेवन किया गया हो, उसी प्रकार स्पष्ट कह दे। क्योंकि, जिस प्रकार वैद्य के पास रोग की सर्व व्यवस्था कहने से ही रोग की ठीक औषधि की जा सकती है, उसी प्रकार गुरु के पास ठीक-ठीक आलोचना करने से ही पाप कर्म की विशुद्धि की जा सकती है। उत्थानिका-अब सूत्रकार, साधु को आचार्य की आज्ञा मानने का उपदेश देते हैं:अमोहं वयणं कुज्जा, आयरिअस्स महप्पणो। तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए॥३३॥ .. अमोघं वचनं कुर्यात्, आचार्यस्य महात्मनः। तत् परिगृह्य वाचा, कर्मणा उपपादयेत्॥३३॥ पदार्थान्वयः- महप्पणो-श्रुतादि गुणों से श्रेष्ठ महात्मा आयरिअस्स-आचार्य के वयणं-वचन को अमोहं-सफलीभूत कुज्जा-करे, भाव यह है कि तं-आचार्य के वचन को वायाए-एवमस्तु आदि वचन से परिगिज्झ-ग्रहण करके कम्मुणा-कर्म से उववायए-संपादन करे। मूलार्थ-साधु का कर्त्तव्य है कि वह महापुरुष आचार्यों की आज्ञा को प्रथम 'तहत्ति' आदि शब्दों द्वारा प्रमाण करे और तत्पश्चात् शीघ्र ही उस को शरीर द्वारा कार्य रूप में संपादन कर सफल करे। टीका-श्रुतादि गुणों से युक्त आचार्य महाराज यदि किसी काम के लिए आज्ञा प्रदान करें तो शिष्य को योग्य है कि, उनकी आज्ञा को पहले तो 'तथास्तु' या 'एवमस्तु' आदि आदर सूचक शब्दों से नम्रतया प्रमाण (स्वीकार) करे और फिर काय द्वारा उस काम को शीघ्र ही सुचारु रूप में आज्ञानुसार संपादन करे। अपने पर कुछ भी कठोर आपत्ति सामना करती हो किन्तु, महात्मा-आचार्यों के वचनों को निष्फल न होने दे और जब आचार्य का वचन कार्य द्वारा सफली भूत किया जाता है, तब उनको प्रसन्नता होती है, जिससे फिर सेवा भावी शिष्य को नाना प्रकार के सद्गुणों की प्राप्ति होती है। क्योंकि, आचार्य के वाक्य न्याय युक्त होने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि करने वाले होते हैं। उत्थानिका- अब आचार्य, काम भोगों से निवृत्त रहने का उपदेश देते हैं :अधुवं जीविअंनच्चा, सिद्धिमग्गं विआणिआ। विणिअट्टिज भोगेसु, आउं परिमिअप्पणो॥३४॥ 330] दशवैकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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