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________________ पदार्थान्वयः-से-वहसाधुजाणं-जानता हुआवा-अथवा अजाणं-न जानता हुआआम्मिों अधार्मिकपदं-कार्यको कटु-कर केखिप्पं-शीघ्र ही अप्पाणं-अपनी आत्मा को संवरे-पाप से हटा लेतथा फिर बीअं-दूसरेतं-उस पाप कार्यका न समायरे-समाचरण न करे। मूलार्थ-जानतेहुए यानजानतेहुए यदि कभी साधुसे कोई अधार्मिक कार्यबन पड़े, तो साधुको योग्य है कि,शीघ्र ही उस पापसे अपनी आत्मा का संवरण करे और भविष्य में फिर वह कार्यकभी न करे। . टीका- इस गाथा में दोष से निवृत्त होने की सूचना दी गई है। यथा- किसी साधु से जान कर या भूल कर मूल गुण वा उत्तर गुण की यदि कभी विराधना हो जाए, तब उसको योग्य है कि, बहुत शीघ्र ही आलोचना, प्रत्यालोचना, आदि करके उस पाप की विशुद्धि करे और अपनी आत्मा को कुमार्ग गामी होने से बचा ले तथा द्वितीय बार फिर कभी उस कार्य का आचरण न करे। क्योंकि, यदि आलोचना और प्रायश्चित आदि से उस कृत पाप की शुद्धि न की गई तो फिर अनुबन्ध पड़ जाएगा, जिसका फल फिर चारों दुःखमय गतियों में परिभ्रमण करते भोगना पड़ेगा। अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम्'। सूत्रकार ने जो कृत्वा' पद दिया है, उसका भाव है कि, राग और द्वेष के कारण से चाहे मूल गुण की विराधना हुई हो, चाहे उत्तर गुण की विराधना हुई हो, साधु को दोनों ही से निवृत्त होना चाहिए। छोटे-बड़े दोष की अयोग्य भावना से किसी एक को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। उत्थानिका- अब सूत्रकार, आलोचना करते समय दोषों को न छिपाने का आवश्यक उपदेश करते हैं: अणायारं परक्कम, नेव गृहे न निन्हवे। सुई सया वियड़भावे,असंसत्ते जिइंदिए॥३२॥ अनाचारं पराक्रम्य, नैव गृहयेत्न निहृवीत। शुचिःसदा विकटभावः,असंसक्तः जितेन्द्रियः॥३२॥ पदार्थान्वयः- सुई-पवित्र मति वाला साय-सदा वियड़भावे-प्रकट भाव धारण करने वाला असंसत्ते-किसी प्रकार की भी आसक्तिन रखने वाला तथा जिइंदिए-इन्द्रियों को जीतने वाला साधुअणायारंअनाचार का परक्कम-सेवन करकेगुरुकेसमक्ष आलोचना करे, तबदोष को नेव गूहे-थोड़ा-सा कह कर बीच में ही गुप्त न करे तथा न निन्हवे-सर्वथा ही गुप्त न करे। ___ मूलार्थ-विशुद्ध बुद्धिवाला,सदा प्रकट भावरखनेवाला,किसी प्रकारका प्रतिबंध नरखनेवाला तथा चंचल इन्द्रियों को जीतनेवाला साधु;संयम में किसी प्रकारका दोष लगने के पश्चात् गुरु श्री के समक्ष आलोचना करे और आलोचना करते समय दोष को यत्किंचित्स्थू ल रूप से कह कर गुप्त न करे तथा सर्वथा ही गुप्त न करे।जैसी घटना घटी हो स्पष्टतया वैसी ही पूर्वापरकथन करे। १'गुहनं' किंचित्कथनम्। 2. निह्न वः' सर्वथापलापः इति टीका। अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [329
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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