SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे। सुअलाभेन मज्जिज्जा, जच्चा तवस्सि बुद्धिए॥३०॥ न बाह्यं परिभवेत्, आत्मानं न समुत्कर्षेत्। .. श्रुतलाभाभ्यां न माद्येत्, जात्या तपस्विबुद्ध्या // 30 // पदार्थान्वयः-साधु बहिरं-अपने से भिन्न किसी जीव का न परिभवे-तिरस्कार न करे और अत्ताणं-अपनी आत्मा को न समुक्कसे-सब से बड़ा भी न माने तथा सुअलाभे-ज्ञान से, आहारादि के यथेच्छ लाभ से जच्चा-जाति से तवस्सि-तप से और बुद्धिए-बुद्धि से बड़ा होने पर न मजिजा-अहंकार न करे। मूलार्थ-चाहे कोई कैसा ही क्यों न हो; साधु को किसी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए तथा अपने आप को बड़ा नहीं समझना चाहिए और तो क्या, अपने श्रुत, लाभ, जाति, तप एवं बुद्धि आदि गुणों पर भी अहंभाव नहीं करना चाहिए। टीका- इस गाथा में मद नहीं करने का उपदेश किया गया है। जैसे- श्री भगवान् उपदेश करते हैं कि, हे आर्यो ! साधु को किसी जीव का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए और ना ही अपने आप को सब से बड़ा मानना चाहिए। इतना ही नहीं, किन्तु श्रुत, लाभ, जाति, तप, एवं बुद्धि आदि गुणों का भी मद नहीं करना चाहिए जैसे कि, मैं बड़ा शास्त्र पारंगत पण्डित हूँ, मैं सब से श्रेष्ठ जाति वाला हूँ, मैं बड़ा घोर तपस्वी हूँ, मैं बड़ा तीव्र बुद्धि वाला हूँ इत्यादि / सूत्र में आए हुए श्रुत, लाभ आदि शब्द उपलक्षण हैं, अतः साधु को कुल, बल, रूप, ऐश्वर्य आदि सभी प्रकार का अहंकार नहीं करना चाहिए। सूत्रकार ने जो यह अहंकार का निषेध किया है, इसका कारण यह है अहंकार आत्म विकास की क्रिया का बाधक है। अहंकार के होते ही आत्मा पतन की ओर जाने लग जाती है। औरों का तो क्या कहना, मोक्ष द्वार तक पहुँचे हुए बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी भी इसके भ्रमजाल में पड़ कर इस संसार-सागर में समा गए, जिन का आज तक कुछ पता नहीं। अहंकारी साधु, साधुत्व का अभिमान नहीं कर सकता। क्योंकि, अहंकार के करने से इस प्रकार के सचिक्कण कर्मों का बंध होता है, जिससे साधुत्वभाव किसी भी हालत में स्थिर नहीं हो सकता। उत्तम साधुत्वं तो केवल नम्रता में ही है। इसी से एक से एक उत्तरोत्तर श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति होती है। अतः साधुत्व की कामना करने वाले साधु को अहंकार के दुर्गुण को छोड़ देना चाहिए और नम्रता के गुण को अपनाना चाहिए। उत्थानिका-अब सूत्रकार, 'यदि कभी कारण वश साधु से कोई अकार्य हो जाए, तो फिर क्या उपाय करना चाहिए' यह कहते हैं: से जाणमजाणं वा, कट्ट आहम्मि पयं। संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समायरे // 31 // स जानन् अजानन् वा, कृत्वा अधार्मिकं पदम्। संवृणुयात् क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं तत् न समाचरेत्॥३१॥ . 328] दशवकालिकसूत्रम् [ अष्टमाध्ययनम्
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy