________________ असावधानी हो जाती है। यह स्पष्ट सिद्ध है कि, इस रात्रि भोजन विरमण व्रत के भंग से प्रथम अहिंसा महाव्रत दूषित हो जाता है। जब अहिंसा व्रत दूषित हो गया, तो फिर अन्य व्रत अछूते कैसे रह सकते हैं ? वे भी दूषित हो जाते हैं। अतः सूत्रकार ने इसीलिए जोर देकर यह कहा है कि, 'मणसा वि न पत्थए।' सूत्र में जो सूर्य के लिए 'अस्त' शब्द का प्रयोग किया है, उससे कुछ 'सूर्य नष्ट हो जाता है या गिर जाता है' यह बात नहीं है। अस्त शब्द से यहाँ केवल 'पर्वतं प्राप्ते अदर्शनीभूते' ही अर्थ लिया जाता है। अर्थात् पश्चिमाचल के कारण सूर्य के अदृश्य हो जाने को ही अस्त कहते हैं। __ उत्थानिका- अब सूत्रकार, 'यदि साधु को दिन में भी थोड़ा (स्वल्प) ही आहार मिले तो फिर क्या करना उचित है' यह कहते हैं: अतिंतिणे अचवले, अप्पभासी मिआसणे। हविज उयरे दंते, थोवं लद्धं न खिंसए॥२९॥ अतिंतिणः अचपलः, अल्पभाषी मिताशनः। भवेत् उदरे दान्तः, स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेत्॥२९॥ पदार्थान्वयः- साधु को अतिंतिणे-आहार न मिलने पर तनतनाहट न करने वाला अचवले-चपलता रहित स्थिर स्वभावी अप्पभासी-अल्प भाषी मिआसणे-प्रमाण पूर्वक आहार करने वाला उयरे दंते-तथा उदर का दमन करने वाला हविज-होना चाहिए और थोवं-स्तोक आहार आदि पदार्थों को लद्धं-प्राप्त कर न खिंसए-गृहस्थ की या पदार्थ की निन्दा नहीं करनी चाहिए। मूलार्थ-जो आहार के न मिलने पर अप्रासंगिक बकवाद नहीं करता है, किसी प्रकार की चंचलता नहीं करता है, काम पड़ने पर थोड़ा बोलता है और भोजन भी थोड़ा ही करता है, अधिक क्या, जो अपने उदर को पूरी तरह से अपने वश में रखता है और उदर पूर्ति न हो सकने लायक थोड़ा आहार मिलने पर दातार गृहस्थ की एवं पदार्थ की प्रकट रूप से या अप्रकट रूप से किसी प्रकार भी निन्दा नहीं करता है। वही सच्चा साधु है। . टीका-श्री भगवान् उपदेश करते हैं कि, यदि कभी साधु को आहार न मिले, तो साधु उस अलाभ को जनता के आगे प्रकट न करे। जैसे- यह क्षेत्र कैसा निकृष्ट है जो पुरुषार्थ करने पर भी यहाँ यथेष्ट लाभ नहीं होता तथा साधु को योग्य है वह चपलता को छोड़ कर हमेशा स्थिर चित्त रहे, वाक्प्रपञ्च न करे, कारण पड़ने पर थोड़ा ही बोले एवं प्रमाण से अधिक आहार भी न करे। सूत्र का यह आशय है कि, साधु को अपने उदर पर स्वाधीनता रखनी चाहिए। अर्थात् आहारादि पदार्थ भले ही न मिलें, यदि मिले तो चाहे निकृष्ट और स्वल्प मिलें, पर साधु को उस की निन्दा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि, गृहस्थ की इच्छा है, गृहस्थ की चीज है, दे या न दे। साधु का क्या अधिकार है कि, वह दातार की या पदार्थ की निन्दा करे। उत्थानिका- अब सूत्रकार, अहंकार परित्याग के विषय में कहते हैं: अष्टमाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् / [327